Book Title: Jain Dharm Darshan Part 04
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 17
________________ गर्दभी विद्या का प्रयोग किया। रोहगुप्त ने उस मंत्रित रजोहरण को घुमाकर उसे भी निष्फल कर दिया। सभी उपस्थित सभासदों ने परिव्राजक को परिजित घोषित कर रोहगुप्त की विजय की घोषणा की। विजयी होकर रोहगुप्त आचार्य के पास आये और घटना सुनाई। आचार्य ने कहा - तुमने परिव्राजक को पराजित किया यहाँ तक तो ठीक है, परंतु वाद की समाप्ति के बाद तुम्हें यह कहना चाहिए था कि हमारा शुद्ध सिद्धांत तो दो राशी का ही है। केवल परिव्राजक को परास्त करने के लिए मैंने तीन राशीयों का समर्थन किया। अतः अब जाकर राजसभा में कहो कि वह त्रिराशिक सिद्धांत ठीक नहीं है। रोहगुप्त अपना पक्ष त्यागने के लिए तैयार नहीं हुए । आचार्य ने सोचा यदि इन्हें ऐसे ही छोड दिया जाएगा तो कई लोगों की श्रद्धा को भ्रष्ट करेंगे । तब आचार्य ने राजा के पास जाकर कहा - राजन् ! मेरे शिष्य रोहगुप्त ने जैन सिद्धांत के विपरीत तत्व की स्थापना की है। जिनमत के अनुसार दो ही राशी है। किंतु समझाने पर भी रोहगुप्त अपनी भूल स्वीकार नही कर रहें । आप राजसभा में उसे बुलायें और मैं उसके साथ चर्चा करुंगा। राजा ने रोहगुप्त को बुलाया और गुरु शिष्य की छः मास की चर्चा हुई। चर्चा को लम्बी होते देखकर राजा ने निवेदन किया कि मेरा सारा राज्य कार्य अस्त - व्यस्त हो रहा है, आप इस चर्वा को समाप्त करिये। अंत में आचार्य ने कहा - यदि वास्तव में तीन राशी हैं तो कुत्रिकापण (जिसे आज जनरल स्टोर्स कहते हैं) में चलें और तीसरी राशी नोजीव मांगे। राजा को साथ लेकर सभी लोक कुत्रिकापण गये और वहां के अधिकारी से कहा हमें जीव अजीव और नोजीव, ये तीन वस्तुएँ दो ! उसने जीव और अजीव दो वस्तुएँ ला दी और बोला - नोजीव नाम की कोई वस्तु संसार में नहीं है। राजा को आचार्य का कथन सत्य प्रतीत हुआ और उसने रोहगुप्त को अपने राज्य से निकाल दिया। आचार्य ने भी उन्हें संघ से बाह्य घोषित कर दिया। तब वे अपने अभिमत का प्ररुपण करते हुए विचरने लगे । अंत में उन्होंने वैशेषिक मत की स्थापना की। * गोष्ठामाहिल और अबद्धिकवाद : भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के 584 वर्ष बाद दशपुर नगर में अबद्धिक मत प्रारंभ हुआ। इसके प्रवर्तक गोष्ठामाहिल थे। आचार्य आर्यरक्षित के तीन प्रमुख शिष्य थे - दुर्बलिकापुष्यमित्र, फाल्गुरक्षित और गोष्ठामाहिल । एक बार दुर्बलिकापुष्यमित्र अर्थ की वाचना दे रहे थे। उनके जाने के बाद विन्ध्य नामक मुनि उस वाचना का पुनरावर्तन कर रहे थे। गोष्ठामहिल भी उसे सुन रहे थे। उस समय आठवें कर्मप्रवाद पूर्व के अंतर्गत कर्म का विवेचन चल रहा था। उसमें एक प्रश्न यह था कि जीव के साथ कर्मों का बंध किस प्रकार होता है। उसके समाधान में कहा गया था कि कर्म का बंध तीन प्रकार से होता है : 1. स्पृष्ट :- कुछ कर्म जीव प्रदेशों के साथ स्पर्श मात्र करते हैं और तत्काल सूखी दीवार पर लगी मिट्टी के समान झड जाते हैं। ___2. स्पष्ट बद्ध :- कुछ कर्म जीव - प्रदेशों का स्पर्श कर बंधते हैं, किंतु कुछ समय के पश्चात् पृथ्क हो जाते हैं जैसे की गीली दीवार पर उडकर लगी मिट्टी कुछ तो चिपक जाती है और कुछ नीचे गिर जाती है। 3. स्पृष्ट, बद्ध निकाचित :- कुछ कर्म जीव - प्रदेशों के साथ गाढ रुप से बंधते हैं, और दीर्घ काल तक 412 Jain Education International For Personal &Private use only www.jainelibrary.org.

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