Book Title: Jain Dharm Darshan Part 04
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 15
________________ नहीं समझे। तब उन्हें संघ से बाहर कर दिया गया। अव्यक्तवाद को माननेवालों का कहना है कि किसी भी वस्तु के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सब कुछ अव्यक्त है। कुछ आचार्य ऐसा मानते हैं कि आचार्य आषाढ के कारण यह विचार चला, इसलिए इसके प्रवर्तक आचार्य आषाढ है। पर वास्तव में इसके प्रवर्तक आषाढ के शिष्य थे। ये तीसरे निन्हव हुए। एक बार विहार करते हुए ये राजगृह नगरी में आये। राजा बलभद्र ने उनको पकडवा लिया। साधुओं ने कहा - हम तपस्वी है, चोर नहीं। राजा ने कहा- कौन जानता है कि साधु वेश में कौन साधु है और कौन चोर । साधु बोले- ज्ञान और चर्या के आधार पर साधु और असाधु की पहचान होती है। राजा ने प्रत्युत्तर दिया - जब आपको भी कौन संयत है और कौन असंयत है यह ज्ञात नहीं होता तो मुझे आपके ज्ञान और चर्या में कैसे विश्वास होगा। आप अव्यक्त है अत: मैं कैसे जानूं कि आप साधु है या चोर । अतः सब कुछ अव्यक्त है, इस संदेह को छोडकर आप व्यवहार नय को स्वीकार करें। इस प्रकार युक्ति से राजा ने उन्हें संबोध दिया। संबुद्ध होकर वे पुनः गुरु के पास आये और प्रायश्चित लेकर संघ में सम्मिलित हो गए। * अश्वमित्र और सामुच्छेदिकवाद भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के 220 वर्ष बाद मिथिलापुरी में सामुच्छेदवाद की उत्पत्ति हुई। इसके प्रवर्तक आचार्य अश्वमित्र थे। एक बार आचार्य अश्वमित्र अपने आचार्य कौण्डिल के पास पूर्वों का ज्ञान पढ़ रहे थे। उस समय पर्यायवाद का प्रकरण चल रहा था। उत्पत्ति के अनंतर ही वस्तु नष्ट हो जाती है। अतः प्रथम समय के नारक जीव विच्छिन्न हो जायेंगे, दूसरे समय के नारक भी विच्छिन्न हो जायेंगे, इस प्रकार सभी जीव विच्छिन्न हो जायेंगे। पर्यायवाद के इस प्रकरण को सुनकर आचार्य अश्वमित्र का मन शंकित हो गया। उन्होंने सोचा - यदि वर्तमान समय में उत्पन्न सभी जीव किसी समय विच्छिन्न हो जायेंगे, तो सुकृत - दुष्कृत कर्मों का वेदन कौन करेगा? क्योंकि उत्पन्न होने के अनंतर ही सब की मृत्यु हो जाती है। गुरु ने बहुत समझाया- यह बात ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से है। सब नयों की अपेक्षा से नहीं है। एक पर्याय के विनाश से वस्तु का सर्वथा विनाश नहीं होता । इत्यादि अनेक प्रकार से गुरु के समझाने पर भी गुरु के कथन को स्वीकार नहीं किये । निन्हव समझकर गुरु ने उन्हें संघ से पृथक् कर दिया। - एक बार वे विहार करते हुए राजगृही नगरी में पहुंचे। वहां के खंडरक्ष आरक्षक श्रावक थे। उन्होंने आचार्य अश्वमित्र को उनके शिष्यों के साथ पकड लिया और पीटने लगे। अश्वमित्र ने कहा- तुम श्रावक होकर श्रमणों को इस तरह क्यों पीट रहे हो ? तब उन्होंने कहा जो दीक्षित हुए थे, वे तो विच्छिन्न हो गए। तुम चोर हो या गुप्तचर हो कौन जाने ? आपको कौन मार रहा है, आप तो स्वयं विनष्ट हो रहे हैं। इस प्रकार भय और युक्ति से समझाने पर वे संबुद्ध हो गए और गुरु के पास जाकर प्रायश्चित लेकर पुनः संघ में प्रविष्ट हो गए। * आचार्य गंग और द्वैक्रियवाद भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के 228 वर्ष पश्चात् उल्लकतीर नगर में द्विक्रियावाद की उत्पत्ति हुई। इसके प्रवर्तक आचार्य गंग थे। Jain Education International 10 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.

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