Book Title: Jain Dharm Darshan Part 04
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 14
________________ गौतम - भगवन् ! क्या जीव के एक प्रदेश को जीव कहा जा सकता है ? भगवान नहीं ! - गौतम - भगवन् ! क्या जीव के दो, तीन, चार आदि संख्यात या असंख्यात प्रदेश को जीव कहा जा सकता है ? भगवान - नहीं ! अखण्ड चेतन द्रव्य में एक प्रदेश से कम को भी जीव नहीं कहा जा सकता। भगवान का यह उत्तर सुन तिष्यगुप्त मुनि ने यह निष्कर्ष निकाला कि अंतिम प्रदेश के बिना शेष प्रदेश जीव नहीं है, अत: अंतिम प्रदेश ही जीव है। आचार्य ने उन्हें बहुत समझाया कि जैसे एक तन्तु को पट नहीं कहा जा सकता, सारे तंतु मिलकर पट कहलाते हैं। वैसे ही एक प्रदेश जीव नहीं अपितु सारे प्रदेश मिलकर जीव कहलाते हैं। गुरु के समझाने पर भी उन्होंने अपना आग्रह नहीं छोडा, तब गुरु ने उन्हें संघ से पृथक कर दिया । जीव प्रदेश के विषय में संदेह और आग्रह होने के कारण ये जीव प्रादेशिक कहलाए। एक बार मित्र श्री नामक श्रमणोपासक ने तिष्यगुप्त मुनि को संबोध देने हेतु अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित किया। तिष्यगुप्त मुनि वहां गये, मित्रश्री ने विविध खाद्य पदार्थों का एक एक छोटा खंड उनके सामने रखा। जैसे चावल का एक दाना, सूप की दो चार बूंद, वस्त्र का एक छोटा टुकडा आदि । मित्रश्री ने फिर अपने स्वजनों से कहा- मुनि को वंदन करो ! आज हम दान देकर धन्य हो गये हैं। यह सुनकर तिष्यगुप्त मुनि बोले - तुमने मेरा तिरस्कार किया है। मित्रश्रीबोला- मैंने तिरस्कार नहीं किया है। यह तो आपका ही सिद्धांत है कि आप वस्तु के अंतिम प्रदेश को ही वस्तु मानते हैं, दूसरे प्रदेशों को नहीं। इसलिए मैंने प्रत्येक पदार्थ का अंतिम अंश आपको दिया है। मैंने तो आपके सिद्धांत का पालन किया है। यदि यह सिद्धांत ठीक नहीं है, तो मैं आपको भगवान महावीर स्वामी के सिद्धान्तानुसार प्रतिलाभित करुं । इस घटना से मुनि तिष्यगुप्त प्रतिबुद्ध हो गये और पूर्व दोषों की आलोचना प्रतिक्रमण करके पुनः भगवान महावीर स्वामी के शासन में सम्मिलित हो गये। * आचार्य आषाढ के शिष्य और अव्यक्तवाद भगवान महावीर के निर्वाण के 214 वर्ष बाद श्वेताविका नगरी में अव्यक्तवाद की उत्पत्ति हुई। इसके प्रवर्तक आचार्य आषाढभूति के शिष्य थे। Jain Education International - एक बार आचार्य आषाढ अपने शिष्यों को वाचना दे रहे थे। योग साधना का अभ्यास चल रहा था। अचानक हृदय-शूल रोग से ग्रस्त होने के कारण उनका स्वर्गवास हो गया। मरकर वे देवलोक में उत्पन्न हुए। वहाँ उन्होंने अवधिज्ञान से अपने पूर्वजन्म को देखा और सोचा- शिष्यों का अभ्यास अधूरा रह जाएगा। अतः वे पुन दिव्य शक्ति से अपने मृत शरीर में प्रविष्ट हो गए। शिष्यों को इसकी जानकारी नहीं थी । देव प्रभाव से अध्ययन का क्रम शीघ्र पूरा हो गया। जब शिष्य उस अध्ययन में पूर्ण निष्णात हो गए, तब आचार्य देवरुप में प्रकट होकर बोले- श्रमणों! मुझे क्षमा करना। मैं असंयत होकर भी तुम साधुओं से वंदना करवाता रहा। मैं तो अमुक दिन ही काल- कवलित हो गया था। इस प्रकार क्षमायाचना कर देव चला गया। उनके जाते ही श्रमणों को संदेह हो गया "कौन जाने कि कौन साधु है और कौन देव है ? निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कह सकते। सभी वस्तुएं अव्यक्त है। उनका मन संदेह के हिंडोले में झुलने लगा। स्थविरों ने उन्हें समझाया पर वे - 9 For Personal & Private Use Only - - www.jainelibrary.org

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