Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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भमिका
जैन दर्शन में कारण-कार्य-व्यवस्था पर गहन, सूक्ष्म एवं व्यावहारिक चिन्तन हुआ है, जिसका अनुमान डॉ. श्वेता जैन के प्रस्तुत ग्रन्थ से होता है। जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में कारण-कार्य व्यवस्था को लेकर इससे पूर्व ऐसा व्यवस्थित एवं विस्तृत ग्रन्थ दृष्टिपथ में नहीं आया। पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य ने “जैनदर्शन में कार्यकारणभाव और कारक-व्यवस्था" पुस्तक में जैनदर्शनानुसार कारण-कार्य की चर्चा की है, किन्तु १३३ पृष्ठों की इस पुस्तक में लक्ष्य जैन विचारक कानजी स्वामी की उपादान-निमित्त विषयक विचारधारा का निरसन करना रहा है, समग्र दृष्टिकोण से वहाँ चर्चा नहीं है। पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री की 'जैनतत्त्वमीमांसा' एवं 'जयपुर खानिया तत्त्वचर्चा' में भी जैन दर्शनाभिमत उपादान एवं निमित्त कारणों का विस्तृत विवेचन हुआ है। पं. सुखलाल संघवी, पं. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य आदि की कृतियों में भी जैन दर्शनानुसारी कारण-कार्य व्यवस्था का विचार हआ है, किन्तु कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ इस विषय पर प्राप्त नहीं होता। डॉ. श्वेता जैन ने जैनदर्शन में कारण-कार्यव्यवस्था का प्रतिपादन करते हुए काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म, पुरुष/पुरुषार्थ नामक पंचकारण समवाय की विस्तृत समीक्षा की है। यह प्रस्तुति जैनदर्शन एवं भारतीय परम्परा के प्रमुख ग्रन्थों में निहित चिन्तन पर आधृत है। जैनदर्शन में कारण-कार्य-विमर्श
जैन दर्शन के कारण-कार्य सिद्धान्त की अनेक विशेषताएँ हैं। जिन्हें संक्षेप में निम्नांकित बिन्दुओं में रखा जा सकता है
(१) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के आधार पर कारण-कार्य का चिन्तन जैनदर्शन का अपना वैशिष्ट्य है। प्रायः द्रव्य की कारणता से आशय है- धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और पुद्गल की कारणता। किन्तु यहाँ आकाश का समावेश क्षेत्र में होने से तथा काल का पृथक् उल्लेख होने से द्रव्य की कारणता से आशय प्रमुखत: जीव एवं पुद्गल की कारणता है। धर्म एवं अधर्म द्रव्य तो उदासीन निमित्त के रूप में क्रमश: गति एवं स्थिति में कारण बनते हैं। प्रत्येक द्रव्य स्वपरिणमन में उपादान कारण होता है। पुद्गल एवं जीव द्रव्य अन्य जीव तथा पुद्गल के प्रति सक्रिय
व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक १९, उद्देशक ९, प्रज्ञापनासूत्र पद २३, सूत्रकृतांगनियुक्ति ४, आदि के आधार पर कथन। कहीं भव के अलावा चार का ही कथन है तो कहीं भव के साथ पाँच करणों या कारणों का।
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