Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 12
________________ x1 पंचसमवाय मुक्ति प्राप्ति में भी सहायक है तथा व्यावहारिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भी इनकी कारणता सिद्ध होती है। काल आदि पाँच कारणों में परस्पर गौण - प्रधान भाव होता है। कभी काल प्रधान हो सकता है, कभी स्वभाव, कभी नियति, कभी पूर्वकृत कर्म तो कभी पुरुषार्थ। यह भी आवश्यक नहीं कि सदैव एक साथ पाँचों कारण उपस्थित हों, पाँचों कारण तो जीव में घटित होने वाले कार्यों में ही होते हैं, अजीव पदार्थों में सम्पन्न होने वाले कार्यों में न तो पूर्वकृत कर्म कारण होता है और न ही उनका अपना पुरुषार्थ । उपचार से जीव के पूर्वकृत कर्म एवं पुरुषार्थ को अजीव के कार्यों में भी कथंचित् कारण माना जा सकता है। पुद्गल के प्रयोगपरिणमन में तो जीव का पुरुषार्थ कारण बनता भी है। ये पाँच कारण परस्पर एकदूसरे के प्रतिबन्धक नहीं होते हैं। इनमें परस्पर समन्वय से कार्य की सिद्धि होती है। कार्य की सिद्धि इन पाँच कारणों में कदाचित् किसी के न्यून होने पर भी हो सकती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि पंचसमवाय सिद्धान्त की मान्यता के पीछे जैन दार्शनिकों की अनेकान्तवाद की दृष्टि ही प्रमुख कारण रही है। 'पंचसमवाय' सिद्धान्त को स्वीकार करने पर भी जैनदर्शन में पुरुषकारवाद अथवा पुरुषार्थवाद की प्रधानता अंगीकृत है। श्रमण संस्कृति का दर्शन होने के कारण इसमें श्रम अर्थात् उद्यम या पुरुषार्थ का विशेष महत्त्व है। मनुष्य के हाथ में पुरुषार्थ ही है, जिससे वह अपने भाग्य को भी परिवर्तित कर सकता है और मोक्ष को भी प्राप्त कर सकता है। इसीलिए व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के वृत्तिकार अभयदेवसूरि का कथन हैं - " यद्यप्युदीरणादिषु कालस्वभावादीनां कारणत्वमस्ति तथापि प्राधान्येन पुरुषवीर्यस्यैव कारणत्वम्" अर्थात् उदीरणा आदि में काल-स्वभाव आदि की कारणता स्वीकृत है तथापि आगम की दृष्टि से पुरुषार्थ का ही प्राधान्य है। - 44 मैं अपने शोधकार्य के दौरान अनेक संतों और विद्वानों के सान्निध्य में गई और शोध कार्य से सम्बन्धित विभिन्न प्रश्नों पर चर्चा की। इससे मेरे शोधकार्य को गति मिली। विद्वद्वर्य मुनिश्रेष्ठ श्री प्रेम मुनि जी और प्रज्ञारत्न गुरुवर्य श्री जितेश मुनि जी का बाल्यकाल से मेरे जीवन के विकास में पदे पदे वचनों से अमूल्य योग रहा है। इस ग्रन्थ के लेखन में भी उनका यथाशक्य सहयोग प्राप्त हुआ । मैं इन दोनों संतवर्यों के प्रति हृदय से कृतज्ञता का अनुभव करती हूँ। श्रद्धेया विदुषी महासती श्री पद्मश्री जी ने नियतिद्वात्रिंशिका का जिस धीरता एवं योग्यता के साथ मुझे मर्म समझाया, उसके लिए मैं हृदय से आभारी हूँ । संस्कृत विभाग के आचार्य एवं बौद्ध अध्ययन केन्द्र, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर के निदेशक प्रो० धर्मचन्द जी जैन के कुशल निर्देशन एवं पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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