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कर्म, आखिर कैसे करें ?
मरे प्रिय आत्मन् !
हम जैसे भी हैं, उसका कारण हम स्वयं ही हैं। यदि हम सुखी हैं तो उस सुख के आधार-स्तम्भ भी हम स्वयं हैं; और यदि हम दुखी हैं तो दुख के काँटे भी हमने स्वयं ने ही बोए हैं। हम ही नहीं वरन् सृष्टि का प्रत्येक प्राणी स्वयं ही स्वयं के लिए उत्तरदायी है।
__ यदि कोई व्यक्ति नारकीय जीवन जी रहा है तो उसका प्रबन्धक भी वह स्वयं ही है और यदि किसी ने मनुष्यता पाई है तो उसका जवाबदेह भी वह स्वयं है। यदि किसी ने इस पृथ्वी पर दिव्यता की ज्योति प्रज्वलित की है तो वह भी स्वयं के पुरुषार्थ से ही। यह प्रकृति की व्यवस्था है कि यदि आज हमें कोई बरगद का पेड़ दिखाई देता है तो अवश्य ही बीते हुए कल में उस पेड़ का बीज बोया गया होगा। आज हमारे जीवन का जो स्वरूप है और जिन सुख-साधनों का हम उपभोग कर रहे हैं, उनके पीछे कोई हेतु अवश्य है, क्योंकि जिस प्रकार कोई भी वृक्ष बिना बीज के नहीं उग सकता, उसी प्रकार बिना कारण के कोई कार्य नहीं हो सकता। ___हर वेदना के लिए, हर शाता-अशाता के लिए हमारे द्वारा किए गये कर्मों की ही भूमिका होती है। हमारे जीवन में उदय आने वाले कर्मों को या तो हमें भोगना पड़ता है या उन्हें काटना पड़ता है; लेकिन कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जिन्हें उदय आने पर भोगना ही पड़ता है। आखिर कर्म ही तो वह देहरी है जहाँ पर विवश होकर
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