________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
है – इसलिए भावमन को भी जीतने जैसा है!
“कर इन्द्रिय जय ज्ञानस्वभाव रू अधिक जाने आत्म को” – इसमें भावमन भी आ गया! यही बात आत्मख्याति टीका गाथा १४४ में ली है। “पर की प्रसिद्धि करने वाली इन्द्रियों को मर्यादा में लाकर...”
यहाँ दूसरा प्रश्न यह भी होता है कि इन्द्रियज्ञान को सर्वथा हेय कहोगे तो फिर इन्द्रियज्ञान के द्वारा प्रतिमा का दर्शन और इन्द्रियज्ञान के द्वारा शास्त्रस्वाध्याय उसका क्या होगा ?
आत्मार्थी जीव को प्रतिमा का दर्शन भी रहेगा और शास्त्र स्वाध्याय भी रहेगा लेकिन इन्द्रियज्ञान को वह अन्दर से हेयपने जानेगा जिससे उस इन्द्रियज्ञान की प्रवृत्ति चालू रहने पर भी इसकी श्रद्धा में यह उपादेयपने नहीं रहेगा। इसी कारण एक समय ऐसा आयेगा कि वह इन्द्रियज्ञान से भेदज्ञान करके अन्दर में चला जायेगा !
___ अनुभव से पहले इस प्रकार का व्यवहार रहेगा और अनुभव होने के बाद भी ऐसा व्यवहार रहेगा परन्तु श्रद्धा में से यह शल्य निकल जायेगा कि - इन्द्रियज्ञान मेरा है! पहले इन्द्रियज्ञान को ज्ञान तरीके मानता था लेकिन अभी परज्ञेयपणे जानेगा। प्रथम इन्द्रियज्ञान का नाश नहीं होता परन्तु इन्द्रियज्ञान में जो ज्ञान की भ्रांति होती थी – उसका नाश होता है। प्रथम से ही इन्द्रियज्ञान, ज्ञान है ही नहीं। वो है तो ज्ञेय ही, ज्ञान बिल्कुल नहीं है क्योंकि
(१) आत्मा का अनुभव इन्द्रियज्ञान में नहीं होता इसलिए वह प्रथम से ही ज्ञान नहीं है। - यह एक न्याय है। (२) इन्द्रियज्ञान पराश्रित है, द्रव्येन्द्रिय का अवलम्बन लेकर ही
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com