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छ श्रीहरितप्रसूरिकृतान्यष्टकानि। फल मले, तेम नहीं, पण ते लिदा देनारने पण शुभकर्मबंधादिक फल श्राय . ते फल केवी रीते थाय ? ते कहे . धान्यादिकथी ववाएली नूमीनी पेठे तेनुं फल आय जे; अर्थात् पात्रापात्रनी अपेक्षाए फल थाय . कडं ने के, "गुणवते पात्राय दीयमानं महाफलं ” केतां गुणवान पात्रप्रते देवाती वस्तु महाफलरूप आय . क्ली कडं ने के, । (गौतमस्वामीए नगवानने पूज्यु के, हे जगवन्! जे साधुए पापकर्मोनो नाश कर्यो , अथवा तेनां पच्चखाण कर्या ने तेवा साधुने प्रासुक अने एषणीय आहार आप्याथी शुं फल थाय ! त्यारे लगवाने कडं के, हे गौतम! तेश्री एकांत निर्जरा थाय; श्रने तेश्री अटप पण कर्मबंध पडे नहीं.)
तथा अल्पगुणवालाने देवाथी मातुं फल पाय . कर्वा ने के, गौतमस्वामीए जगवानने पुग्घु के हे जगवन्!जे साधुए पापकोने तज्यां नथी, अथवा पचख्यां नथी, तेवा साधुने प्रासुक अने एषणीय आहार आपवाथी शुं फल प्राय ? त्यारे लगवाने कर्वा के, हे गौतम! तेथी एकांते पापकर्म बांधे,अल्प पण निर्जराथाय नहीं.)
अने अंध श्रादिकने जे दान शापवं, ते तो अनुकंपारूप उत्तम लावपूर्वक होवाथी, ( तेर्ड जोके निर्गुणी बे, तो पण) तेथी किंचित् शुल फल मले , एम आगममां कहेलुं .
अथवा देत्रानुसारथी दानफलनी व्यवस्था व्यवहार नयनी अपेक्षाए कहेली ने हवे निश्चय नयनी अपेदाथी कहे , श्राशयथी एटले अध्यवसायथी ते शुन विगेरे फलवाली में केमके, अध्यवसाय में ते, शुनाशुन फलोर्नु मुख्य कारण ने. कर्दा ने के,एकज प्राणीनी हिंसाना फलमां अध्यवसायना क्शथी मोटुं अंतर कहेलुं ने अने तेवीज रीते अध्यक्सायना वशथी निर्जरानुं फल पाण घणा प्रकारचें कहेढुंचे.
एची रीते गर्व, मत्सर श्रादिकना परिणामश्री, गुणवान पात्रने
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