Book Title: Haribhadrasuri krutanyashtakani
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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१८४
श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि ।
sa चोथा जांगानुं स्वरूप कहे बे. गेहादगेहांतरं कश्चि, दशुजादितरन्नरः ॥ यातियत्सुधर्मेण तदेवजवाद्द्भवम् ॥ ४ ॥ अर्थ- जेम कोइ पुरुष नवारा घरमाथी निकलीने, सारा घरमां जाय बे, तेम प्राणी पुण्यानुबंधि पापथी तिर्यच आदिकना जवी निकलीने, मनुष्यादिक जवमां जाय बे.
हवे उपदेश कहे . शुजानुबंध्यतः पुण्यं, कर्तव्यं सर्वथा नरैः ॥ यत्प्रजावादपातिन्यो, जायंते सर्वसंपदः ॥ ५ ॥ अर्थ - श्री करीने, माणसोए सर्वथा प्रकारे, पुण्यानुबंधी पुण्य कर; के जेना प्रजावथी नाश न थाय एवी, सघली मोदादिक संपदा थाय बे.
टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकनार्थ मलतोज बे.) हवे, ते पुण्यानुबंधि, पुण्य शी रीते कराय, ते कहे बे. सदागमविशुद्धेन, क्रियते तच्च चेतसा ॥ एतच्च ज्ञानवृद्धेच्यो, जायते नान्यतः क्वचित् ॥६॥
- ते पुण्यानुबंध पुण्य, हमेशां आगमथी शुद्ध थपला चित्तथी कराय ; ने श्रागमश्री शुद्ध एवं जे चित्त, ते ज्ञानथी वृद्ध एवा माणसोनी उत्तम उपासना करवाथी थाय बे पण बीजी रीते यतुं नथी.
कानोजावार्थ - ( उपरना लोकना श्रर्थने मलतोज बे.) जो चित्त शुद्ध न होय, तो शुं थाय ? ते हवे कहे . चित्तरत्नमसंक्लिष्ट, मांतरं धनमुच्यते ॥ यस्य तन्मूषितं दोष, स्तस्य शिष्टा विपत्तयः ॥ ७ ॥ अर्थ- रागादिक दोषोयें करी ने वर्जित एवं जे चित्तरूपी रत्न,
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