Book Title: Haribhadrasuri krutanyashtakani
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

View full book text
Previous | Next

Page 197
________________ पंचविंशतीतमाष्टक. १८५ ते आध्यात्मिक धन कहेवाय बे; माटे जे माणसनुं ते चित्तरूपी रत्न, राग आदिक (चोरोथी ) लुंटाएलुं बे, ते माणसने कुगतिगमनरूपी आपदाज बाकी मां रहे बे. " टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकना कार्थ मलतोज बे.) हवे ते पुण्यानुबंधपुष्यनो उपाय बतावे . दयाभूतेषु वैराग्यं विधिवद्गुरुपूजनम् ॥ विशुद्धा शीलवृत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुबंध्यदः ॥८॥ अर्थ- प्राणी मां दया, वैराग्य, विधिपूर्वक गुरुपूजन, तथा शुद्ध एवी शीलनी वृत्ति, ते पुण्यानुबंधी पुण्य कहेवाय. टीकानो जावार्थ- सामान्य जीवो प्रते दया, वैराग्य, तथा श्रद्धा, सत्कार आदिक विधिपूर्वक जक्तपानादिकथी गुरुपूजन तथा हिंसा, अनृत, अदत्त, अब्रह्म, अने परिग्रहना त्यागरूप शुद्धवृत्ति; तेथी पुण्यानुबंधि पुष्य थाय बे. एवी रीते चोवीसमा अष्टकनुं विवरण संपूर्ण ययुं. पंचविंशतीतमाष्टकं प्रारभ्यते. हवे तेज प्रधानफलथी देखाडता थका कहे बे. श्रतः प्रकर्षसंप्राप्ता, द्विज्ञेयं फलमुत्तमम् ॥ तीर्थकृत्त्वं सदौचित्य, प्रवृत्त्या मोक्षसाधकम् ॥१॥ अर्थ - ते पुण्यानुबंध पुण्य वृद्धि पामवाथी, उचित प्रवृत्ति - श्री मोहने साधना, एवं तीर्थकररूपी उत्तम फल जाणवु. टीकानो जावार्थ - ( उपरना श्लोकनार्थने मलतोज बे.) हवे ते उचित प्रवृत्तिनुं स्वरूप कहे बे. सदौचित्यप्रवृत्तिश्च, गर्जादारज्य तस्य यत् ॥ तत्राप्यनिग्रहो न्याय्यः, श्रूयते हि जगङ्कुरो ः॥२॥ अर्थ- हमेशां औचित्यनी प्रवृत्ति, गर्भथी मांडीने तीर्थरकने २४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220