Book Title: Haribhadrasuri krutanyashtakani
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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पंचविंशतीतमाष्टक.
१०७ गवान गर्नस्थानमां स्थिर रह्या; त्यारे त्रिशलामाताए विचार्यु के, अरे ! मारो गर्न गली गयो के शुं? इत्यादि शोक करती थकी महा मुःखने प्राप्त यश त्यारे जगवान स्फुरायमान थया; अने विचार्यु के, अहो! हजु मने जोयो नथी, त्यांज मातापितानो मारापर ज्यारे भाटखो स्नेह बे, त्यारे मने जोया बाद, ज्यारे हुँ दीक्षा लेश्श, त्यारे तो तेमने महासंताप थशे. माटे तेमनो संताप दूर करवा माटे, ज्यांसुधी ते जीवशे, त्यांसुधी हुँ दीदा खेश्श नहीं;" एवीरीतनो सातमे महिने तेमणे गावासमांज अनिग्रह सीधो.
अहीं को शंका करे के, एवी रीतनो अनिग्रह करवाथी, मातपिताना उगनो नाश थाय, अने एवी रीतनी महानोनी स्थिति मे, ते तो सिप थयुं; पण तेथी मोदनी समृद्धि मलवानुं तो बनी शकतुं नश्री, केमकें, ते गृहस्थावस्थामां यश् शक्ति नथी. कारण के, गृहस्थावस्थाने दीक्षानुं विरोधिपणुं बे; तेने माटे हवे तेने कहे .
श्मौ शुश्रूषणमाणस्य, गृहानावसतो गुरू ॥ प्रवज्याप्यानुपूर्येण, न्याय्यांते मे नविष्यति ॥५॥ अर्थ-श्रा मातपितानी सेवा करतां अका, घरे रह्या बाद अंते परिपाटीथी मने युक्त एवी प्रव्रज्या पण थशे. टीकानो नावार्थ- (उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज .) सर्वपापनिवृत्तिर्यत्, सर्वथैषा सतां मता ॥ गुरूछेगकृतोऽत्यंतं, नेयं न्याय्योपपद्यते ॥६॥
अर्थ- सर्व पापोनी निवृत्तिरूप एवी था दीक्षा उत्तम माणसोए सर्वथा प्रकारे मानेली अने तेथी माबापने अत्यंत उपेग करावनारनी श्रा दीदा न्यायवाली घटती नथी. टीकानो नावार्थ- (उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज के.)
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