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श्रीदरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि ।
थी के, कोइ बीजा प्रमाणथी निश्चित थएलुं बे ? त्यारे जो तुं कहीश के, तेज प्रमाणश्री निश्चित करेलुं बे, तो तेथी " अन्योन्याश्रय ” नामनो दोष आवशे. एवी रीते प्रमाणना लक्षणनो निश्चय, प्रमाथी थाय बे, अने ते लक्षणनो ज्यारे निश्चय थाय बे, त्यारे ते प्रमाण कहेवाय बे ने ज्यांसुधी तेनुं लक्षण निश्चित नथी थयुं, त्यांसुधी ते प्रमाणने प्रमाणपणुं घटी शके नहीं; ज्यांसुधी प्रमाणने प्रमाणपणुं घटी शकतुं नथी, त्यांसुधी लक्ष्एनो निश्चय श्रइ शकतो नथी; तेम अनवस्थादोषना प्रसंगथी बीजा प्रमाणथी पण तेना लक्षणनो निश्चय थइ शकतो नथी. केमके, जे बीजुं प्रमाण बे, ते निश्चित लक्ष्णवालुं बे, के, तेथी उलटी
तनुं बे ? जो उलटी रीतनुं कहेशो, तो वक्ष्यमाण दोषनी प्राप्ति थशे. तेम निश्चित लक्ष्णवालुं पण तरी शकतुं नथी; केमके, तेना लक्षणनो निश्चय शुं तेथीज बे ? के, बीजाथी बे ? जो " तेथीज" एम कहेशो तो आगलनी पेठेज अन्योन्याश्रयदोष श्रवशे; वली जो प्रमाणांतरथी कहेशो तो तेने विषे पण निश्चित छाने निश्चित पदो घटी शकशे नहीं. कांबे के, अनिश्चित लक्षवाला, प्रमाणलक्षणना निश्चय करवावाला प्रमाणथी, ते प्रमा लक्षणनो निश्चय कोइ पण प्रकारे न्यायवालो कहेवाय नहीं; न जावार्थ एके, निश्चित लक्ष्णवाला प्रमाणवडे करीने निश्चय करीने, प्रमाणनुं जे लक्षण कहेनुं, ते न्याय्य बे, पण इच्छित प्रमाणना लक्षणने उत्पन्न करनार शास्त्रविना, प्रमाणना लक्षणने निश्चय करनार, एवा प्रमाणना लक्षणनो निश्चय करवो, ते व्याजबी नहीं; तेथी ते प्रमाणनुं प्रमाण अनिश्चित लक्षणवालुं यु, ने एवी रीते ज्यारे प्रमाणनुं लक्षण नथी मलतुं, त्यारे तेना लक्षणनो निश्चय करवो, ते वात युक्त नथी.
हवे निश्चित लक्ष्णवाला प्रमाणथी पण प्रमाणना लक्ष्णनो निश्चय थशे, एवी जो वादी शंका करे, तो तेने माटे दवे कहे बे.
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