Book Title: Haribhadrasuri krutanyashtakani
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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एकविंशतीतमाष्टक.
१७३ एकविंशतीतमाष्टकं प्रारज्यते. एवी रीते कुतीर्थिउने शिखामण आपीने, हवे पोताना समुदायवालाउने शिखामण आपता श्रका आचार्य महाराज कहे जे.
सूमबुद्ध्या सदा शेयो, धर्मो धर्मार्थिनिर्नरैः ॥ अन्यथा धर्मबुद्ध्यैव, तद्विघातः प्रसज्यते ॥१॥ अर्थ-धर्मनी श्रद्धावाला माणसोए हमेशां निपुण बुध्येि करीने, धर्मने जाणवो; अने जो स्थूल बुधियी जाणीयें, तो ( कुतीबीउनी पेठे) धर्मना अभिप्रायथीज ते धर्मनो नाश थाय . टीकानो लावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज.) हवे तेज देखाडता थका कहे जे. गृहित्वा ग्लानजैषज्य, प्रदाना निग्रहंयथा ॥ तदप्राप्तौ तदंतेऽस्य, शोकं समुपगतः ॥२॥ अर्थ- कोई रोगी (साधु आदिकने ) औषध देवानो अनिग्रह लेख्ने, ते रोगी नहीं मलवाथी, ते अनिग्रहने अंते शोकने प्राप्त श्रनाराने जेम, तेम, धर्मबुद्धिथी पण अधर्म थाय जे. टीकानो लावार्थ- ( उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज बे.)
हवे ते शोक देखाडे जे. गृहितोऽनिग्रहःश्रेष्ठो, ग्लानो जातो न चक्कचित्॥ अहो मेऽधन्यता कष्टं, न सिझमनिवांडितम् ॥३॥ अर्थ-(ते माणस एवी रीते शोक करे के,) में अभिग्रह तो उत्तम लीधो, पण कोइ ( साधु ) रोगी थयो नहीं!! माटे अरेरे!!! मारी अधन्यता केटली !!! के, मारुं वांगित कार्य सिघ थयुं नहीं !!!
टीकानो नावार्थ-(उपरना श्लोकना अर्थने मलतोज.) हवे चालती वातने जोडवा माटे कहे .
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