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श्री हरिजप्रसूरिकृतान्यष्टकानि ।
क्षणोमां अनुजवनो संस्कार यतो नथी; ते केम बनी शके ? तो के, स्मरणना निर्बीजपणायें करीने, तेने प्राप्तिनो प्रसंग वशे: तेम नित्यानित्य आत्मा छे, केमके, बीजी रीते प्रत्यभिज्ञाननी उत्पत्ति यती नथी; कारण के, एकांत नित्यप्रणुं मानवाथी, साक्षात अनुजवनी नुवृत्तिबे, पण तेथी प्रत्यभिज्ञाननो संभव नथी; ने
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त्यामां तो पूर्वे दीवेली वस्तुनो नारा थवाथी, तथा पूर्वे देखवावालानो पण नाश थवाथी, ने पीना नवीन देखवावालानी तथा नवीन वस्तुनी उत्पत्ति थवाथी प्रत्यभिज्ञाननो संजवज होतो नथी; केमके, नहीं देखनार माणसने नहीं देखाएली वस्तुमां प्रत्यभिज्ञान होतुं नथी; केमके तेवा प्रकारनी खातरी नथी. वादी कहे बेके, जो तुं एम कहीश के कापेला ने फ रीने पाला उगेला केशादिकमां पण प्रत्यनिज्ञान बे ने एवी रीते ग्राह्यते तेना व्यभिचारपणायें करीने, ए प्रमाणताथी सघलामां प्रमाणपणुं वशे. पण एम नहीं; केमके, प्रत्यक्षने पण कोइक जगोए व्यभिचार श्रववाथी सर्वमां अप्रामाण्यनो प्रसंग आवशे. तेम आत्मा देहथकी जिन्नाभिन्न जणाय बे; कारण के, जो एम नहीं मानीयें, तो स्पर्शादिकना ज्ञाननो असंव थशे; केमके जो ते आत्मा देहथी एकांत जिन्न होय, तो देहथी स्पर्श करेली वस्तुनुं तेने ज्ञान न थाय; जेम देवदत्ते स्पर्श करेली वस्तुनुं ज्ञान यज्ञदत्तने यतुं नथी तेम तेम एकांत भिन्न पण नथी; केमके, एकांत अन्न मानवाथी तो देहमानणायें करीने, तेने परलोकना जावनो प्रसंग आवे बे; तेम तेना एक अवयवना नाशथी चैतन्यनी पण हानीनो प्रसंग वे बे; माटे एवी रीते लोक प्रती तिथी पण - आत्मादिक वस्तु नित्यानित्यरूपे बे.
श्रात्माना व्यापकपणामां प्रथम दोष कह्यो, हवे तेना अव्यापकपणामां तेनो गुण कहे बे.
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