Book Title: Gurupad Puja
Author(s): Ajitsagarsuri
Publisher: Shamaldas Tuljaram Shah
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५९
मृदुहास्य संत प्रसंगमां, वचनो सुधाज्ञाने भाँ. ॥३॥ ज्यारे अने त्यारे तमारा. निकटमां ग्रन्थो पड्या, रहेता हता शुभशास्त्रना, के काव्यना के ज्ञानना; घडी एक पुस्तक वाचता तो, ते विषे तल्लीन थता, घडी एक भजन सुणी अने, आत्माविषे आल्हादता. ॥४॥ घडी एक ध्यान धरी प्रभुनु, बाह्यमान विसारता. घडी एक दीव्य निरीक्षणे, कंइ नवीन ग्रन्थ विचारता; घडी एक वचनामृत दइ, प्रभुज्ञान अत्र प्रसारता, ने विश्व- हित केम बने, ते दृष्टि मनमा धारता. ॥ मुन्दर तमारा देहमां, सुन्दर वसी शमता हती, ने मोक्षकेरा मार्गमां, गुरु आपने ममता हती; आ सर्व विश्व भमावता, मनडातणी शमता हती, आचार तत्त्व स्वरूपमां गुरु ? सौम्य निर्मलता हती. ॥६॥ सहु भूतपर अनपायिनी प्रभु ? आप मांही दया हती, ने तीव्र तपना योगथी, कमनीय तव काया हती; शिष्यो उपर शीतल सुभग, गुरु ? आपनी छाया हती, ममता रहित मानव उपर, मधुरी महद् माया हती. ॥७॥ छो आप ऊर्ध्व प्रदेशमा, करुणानी दृष्टि राखजो, आधि अने व्याधि बधां, संकष्ट सद् गुरु ? कापजो; छे ध्वांत अम दिलडां विषे, त्यां ज्ञानरूपे व्यापजो, वैराग्यरूपी कल्पतरुनु, बीन स्थिर मन स्थापनो. ॥८॥
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