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સર શ્રી યશોવિજયજી
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ન દાદાસાહેબ, ભાવનગર,
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PEDIA
॥ सद्गुरुश्रीमबुद्धिसागरसूरीश्वरपादपद्मेभ्योनमः॥
गुरुपदपूजा.
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प्रकाशकशा. सामलदास तुलजाराम
मु. प्रांतिज.
लेखकप्रसिद्धवक्ताआचार्यश्रीमद्भाजितसागरमूरि. वि. संवत् १९८२. बुद्धि संवत् १.
फाल्गुन शुक्र ३.
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॥ ॐ बन्दे श्रीमहावीरम् ॥
निवेदन.
आ दुनियामां दश दृष्टांते दुर्लभ एवो मानव भव पामी आत्मसाधन करवू एज सौथी प्रथम कर्तव्य छे. हवे ते आत्मसाधन तत्त्वज्ञान शिवाय सिद्ध थतुं नयी. वली ते तत्वज्ञाननी माप्ति सद्गुरुद्वारा थइ शके छे. ___ कारण के विशाल नेत्र छतां पण अंधकारमा रहेली वस्तु जेम माणसो देखी शकता नथी, तेम अज्ञानयी आवृत्त बुद्धिवाला पामर पुरुषो ज्ञेय वस्तुने ओलखी शकता नथी. माटे सद्गुरुनो आश्रय एज मुख्य ज्ञान साधन छे. कारणके । नास्ति तत्वं गुरोः परम् ॥ गुरुथी अन्य कोइ श्रेष्ठ वस्तु नथी. तेमज गुरुत्व विनिश्चयमां पण का छे के:
गुरु आणाए मुक्खो, गुरुप्पसायाउ असिद्धिओ। गुरुभत्तीए विज्जा, साफलं होइ णियमेणं ॥१॥
गुरुनी आज्ञा प्रमाणे प्रवृत्ति करवामां आवे तोज मोक्ष लाभ थइ शके. गुरुमहाराजनी प्रसन्नताथीन अष्टसिदिओ माप्त थाय छे. गुरुभक्ति विना विद्याभ्यास करवामां आवे छतां
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पण सफल थतो नथी. अहो ! गुरुप्रभाव केवो अलौकिक छ, जेनो अवधि पण आंकी शकातो नथी.
शरणं भव्य जिआणं, संसाराडविमहाकल्लम्मि । मुत्तुणं गुरु अन्नो, पत्थि णहोही णविय हुत्था ॥२॥
आ जगत्नी अंदर मृषावादी असमार्गना उपदेशको तो घणाए दृष्टिगोचर थाय छे. परंतु मितभाषी सन्मार्गना यथार्थ उपदेष्टा गुरु तो क्वचितन होय छे, तेवा सद्गुरु विना अन्य कोइपण भव्य जीवोने संसाररूप अति गहन अटवीमां शरण छे नही. भविष्यमा पण गुरु शिवाय अन्य त्राता नथी, तमज प्राचीन कालमां पण गुरु एज उद्धारक थएला छे. माटे त्रणे कालमां गुरु शिवाय कोइनो उद्धार थतो नथी. ___ गुरुभक्तिथीज आ संसारसागर तरवानो छे अने मुरु शिवाय अज्ञान टलवानुं नथी.
जह दीवो अप्पाणं, परंच दीवइ दित्ति गुणजोगा। __ तह रयणत्तयजोगा, गुरूवि मोइंधयारहरो ॥१॥
हे भव्यात्माओ! जेम दीपकमा प्रकाशक गुण रहेलोछे, जेथी ते पोताने अने परपदार्थने प्रकाशित करे छे. तेवीन रीवे ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप रत्नत्रयना आराधक होवाथी गुरुपण मोहरूपी अंधकारने दूर करी पोताने अने परने दीपावे के
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माटे ज्ञानदाता गुरु आ विश्वमा पूज्यतम छे. गुरु संबंधि महिमा शास्त्रोमां बहुधा प्रतिपादन करवामां आव्यो छे.
उपरोक्त गुरु गुणयुक्त शास्त्रविशारद जैनाचार्य योगनिष्ठ सद्गुरु श्रीमद् बुद्धिसागर सूरीश्वरजी वि० सं० १९८१ ना जेष्ठ वदी ३ मंगलवार प्रभातमां सवाआठ वागे विजापुर मुकामे स्थूल देहनो त्याग करी परमपदने प्राप्त थया. तेओश्री जैन जैनेतर समग्र प्रजाने केटला उपकारकारक अने केटला प्रिय हता तेनो उल्लेख करवा करतां तेओश्रीना देहांत समाचार जाणतां देशदेशांतरोना कामलो अने तारो अमारा पूज्य गुरुश्रीना उपर आवेला के जे हालमां मु. पादरा अध्यात्म ज्ञानप्रसारक मंडल तरफथी छपाइने बहार पड्या छे, ते वांचवाथी सर्व कोइना जाणवामां आवशे. वली प्रातःस्मरणीय मुरुदेव सदान माटे आपणा पुष्टावलंबनरूपे उपकार कयोंज कर तेवा हेतुथी गुरुपतिमाने गुरु समान मानी गुरु विरहे गुरु स्थापना पण गुरु समानज छे, ए हेतुथी गुरुश्रीनो जे स्थले अग्नि संस्कार करवामां आव्यो हतो ते स्यले अमारा गुरु महाराजना सदुपदेशथी समग्र जैन संघना उदार हाथ नीचे विजापुरना जैनसंघे मनोहर समाधिमन्दिर तैयार करावी तेमां गुरुमूर्ति स्थापन करी छे. ते मंगलमय मूर्तिनी पूजा माटे घणा मुनिओ तथा सद्गृहस्यो तरफथी मागणीओ थवाथी गुरुभक्ति निमित्ते अमारा परमपूज्य गुरुश्री अजितसागरसूरिजीए सुल
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लित भाषामा प्रशस्त भावथी भरपुर आ बन्ने गुरुपद पूजाओ, आरती, मंगल प्रदीप अने गुरुदेवना मुख आगल प्रार्थना कर वानां स्तवनो विगेरे तैयार करी आप्यां छे. ते जाहर करतां आजे मने अति आनन्द थाय छे.
ॐ अहे शान्तिः ॥३॥
विजापुर
फागण सुद ३ सोम । ले. मनि हेमेन्द्रसागर. वि. १९८२
बुद्धि. सं. १
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अथगुरुपूजाभणाववानो विधि.
उपाश्रयनी अंदर अथवा अन्यस्थानमा गुरुनां पनलां स्थापवां, अथवा केशरचंदननी बे पादुका किंवा चोखानी पादुकाओ करवी, अगर गुरुनी प्रतिकृति (छबी) होय तो ते स्थापवी. स्नात्र भणाववानी आवश्यकता नथी. जलपूजानो कलश जलपूजा भणावीने आगल भागमा स्थापन करवो, पाषाण धातु विगैरेनी गुरुमूर्ति होय तो तेनी उपर जलनो अभिषेक करवो. तेमज चंदन पूना विगेरे जिन प्रतिमानी माफक करवी. पाषाणनां पगलां होय तो ते उपर जलारिषेक तथा चन्दन, पुष्प विंगरे प्रतिमानी पेठे चढाववां, धूप, दीप तेमनी आगल स्थापन करवां, पमलां अथवा मूर्तिनी आगल स्वस्तिक नैवेद्य फलने ढांकवा, केनर चंदननी पादुकाओ करी होय तो तेमनी आगल जल कलशादिक स्थापन करवां. जिन मंदिरमां गोखलानी अंदर मुरुमूर्ति अथवा पादुकाओ होय तो श्री जिनप्रतिमानो मूळ मभारो बंध करीने गुरुपादुका ' किंवा गुरुमूर्तिनी आगळ गुरु पुजा भणाववी. अरिहंत भगवान्
जेम परमेष्ठी छे, तेम आचार्य, उपाध्याय अने मुनि ए त्रण पंचपरमेष्ठीमा रहेला छे. तेवी तेमनी मूर्ति तथा पादुकाओ
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करवामां आवे छे अने ते जिनमूर्ति तथा जिनपादुकानी माफक पूजवा योग्य छे, मूरिपदधारक जे मुनिए जे दिवसे देहोत्सर्ग को होय, ते दिवसे भक्तिभावथी गुरुपूजा भणाववी, स्नात्रिआओने मिष्टान्नथी जमाडवा,तेमज तेमने मोदक आदिनी प्रभावना करवी. पूजामां आवेला सर्व साधर्मिक बन्धुओनी प्रभावनापूर्वक भक्ति करवी, एटलंन नहीं पण शक्ति होय तो जमण पण करवू. पादुका अगर मूर्ति आगल उत्सव करवो. सांजना समये टोळी बेसाडी गुरुभक्तिनां स्तवनो तथा गायनो गावां. गुरुभक्ति निमित्ते साधु साध्वीनी विशेष सेवा भक्ति करवी. गुरुचरित्रनुं व्याख्यान सांभळवू. ते निमित्ते धार्मिक पुस्तको छपाववामां यथाशक्ति उद्योग करवो. गुरुनो महिमा क्वारवामां प्रमाद करवो नहि. गुरुश्रीना उपदेश प्रमाणे सदतन करवू. गुरु पादुका तथा गुरुमूर्तिनी सुगंधित पुष्पोथी पूजा करवी.
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गुरुपद पूजा.
प्रणम्य सिद्धार्थसुतं वरेण्यं, तनामि पूजां गुरुसिद्धिसौधम् । श्रीसद्गुरूणामुपदेशखानी, भक्तिप्रभावोल्लसदात्मशक्तिः ।। सकलवृद्धिकराय महात्मने, निखिलकर्ममलक्षयकारिणे गुरुवराय वरिष्ठगुणात्मने, जलमहं विमलं परिकल्पये ॥१॥ ___ ॐ हौ श्री गुरुपदपूजार्थं जलं समर्पयामित्रिविधतापहराय शुभात्मने, जगति जन्मवतां सुखदायिने । कुमतिकदमवृन्दविशोषिणे, परिदधाम्यतिशीतलचन्दनम् ॥२॥
ॐ ही श्री गुरुपदपूजार्थं चन्दनं समर्पयामिसुरभिदह गुणेन सुवासित-सकलभूवळयाय जितात्मने । सुरनरेन्द्रगणस्तुतकणे, मुगुरवे कुसुमानि यजामहे ॥३॥ ॐ ह्री श्री सद्गुरुपदपूजार्थं पुष्पाणि यजामहेविषयवाजिवशीकरणौजसे, मदविषोद्धरणोत्तमशक्तये । मतिमतां हृदि निश्चितमूर्तये, गुरुवराय सुधूपमहं यजे ॥४॥ ॐ हाँ श्री सद्गुरुपदपूनाथ धूपं समर्पयामिभविकनिर्मलबोधविकासने, प्रथितकीर्तियशोविशदात्मने प्रहत्तकर्मचयाय तमोहरं, विशददीपमहं परिकल्पये ॥५॥
ॐ ह्रीश्री सद्गुरुपदपूजार्थं दीपं यजामहे ॥
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भवभयक्षतिकर्म विधायकान् भुभगुणाचरणोत्तमशिक्षकान् । शिवनिकेतनकेतनतुल्यकान् परिदधामि पवित्रतराक्षतान ॥ ६ ॥
ॐ ह्रीं श्री सद्गुरुपदपूजार्थं अक्षतान् यजामहे ॥ जैनेन्द्रशासनधुरन्धरपुङ्गवाय, ज्ञानात्मने विजितलौकिकभावनाय ।
श्रद्धालतान विनवारिधराय शुद्धं, नैवेद्यमुत्तममहं विनिवेदयामि
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ॐ ह्रीं श्रीं सद्गुरुपदपूजार्थ नैवेयं यजामहे - त्रैलोक्यतारकगुणाय वरप्रदाय, सर्वात्मना विहितजन्तुदयोदयाय ।
निर्वृत्तिधर्मपथदर्शक नाय काय,
सम्यक् फलानि शुभदानि निवेदयामि ||८||
कलश.
पूजाभिरष्टधा नित्यं, यो नरः पूजयिष्यति । गुरुपादाम्बुजद्वन्द्वं, तं शिवश्रीर्वरिष्यति ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं श्री सद्गुरुपदपूजार्थं फलानि समर्पयामि स्वाहा. इति गुरुपद पूजा समाप्ता.
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गुरुपदपूजा. योगनिष्ठश्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरपूजा. जन्म अने बालचरित्ररूप प्रथम जलपूजा ॥१॥
विनयसहित श्रीगुरुपदे, प्रेमे करुं प्रणाम; ज्ञानवडे जेणे दीघो, अंतरमा आराम ॥१॥ अनंत भवमां भटकतां, हेते झाल्यो हाथ; प्रेमदीपकथी पिंडमां, निरख्यो निरमल नाथ ॥ २ ॥ सरस्वती मुजवदनमां प्रेमे पूरो वास: महावीर करुणा करी, पूर्ण मटाडो प्यास ॥३॥ अविचल भक्ति आपजो, बुद्धि सिन्धुमुनिराज । आगमपंथ कीधो सुगम, सदा रहो शिरताज ॥ ४ ।। जप तप संयम सर्व पण, गुरु सेवनथी थाय; सफल को मुज आत्मने, सफल करी मुज काय ॥५॥
ढाल-मारी आंखडलीने आश-ए राग. जय बुद्धिसागर मुनिराज, नरभव सफल को कयों पावन गुर्जदेश, परहित देह धर्यो, ए टेक. सर्व देशनो शिरोमणि छे, गुणनिधि गुर्जर देश जो. ते केरा उत्तम शुभ प्रांते, साबर वहे हमेश; नरभव स. ॥१॥
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गायकवाडी राज्य दीपे छे, प्रेमधर्म प्रतिपालजो, महाराजाश्री सयाजी नृपनी, वरते आण विशाल: नर. ॥२॥ त्यां आगल शोभे छे सारं, वीजापुर शुभ गामजो; पाटीदार तणा त्यां जन्म्या, नाम बेचर गुण धाम. नर. ॥३॥ पूर्व जन्मनुं पुण्य हतुं ने, सरस हता संस्कारजो; बुद्धिबल पण बालपणामां, गणतां नावेपार. नर. ॥४॥ सरकारी नीशाले बेठा, गुजराती अभ्यासजो; साते धोरण शीखी लीधां, धरी गुरुमां विश्वास. नर. ॥५॥ श्रावक करी वस्ती सारी, वीजापुर शोभायजो; आवनजावन मुनिजन करता, दरवर्षे दरशाय. नर. ॥६॥ बुद्धिविलोकी विद्यागुरुजी, पूरण राखे प्रेमजो; गुरु करुणाथी आवेघटमां, विद्या करवा क्षेम. नर. ॥७॥ गुरुजनने सहवासी सघला, उरमां धारे एमजो; अति संस्कारी आ बालक छे, माटे राखे रहेम. नर. ॥८॥ पुत्रतणां लक्षण पारणीये, सहजपणे समजायजो अजितसागर विनती उचरे, आत्मा ईश्वर थाय; नर. ॥९।।
काव्य. सकलवृद्धिकराय महात्मने, निखिल कर्ममलक्षयकारिणे । गुरुवराय वरिष्ठगुणात्मने, जलमहं वमलं परिकल्पये ॥१॥
ॐ ह्री श्री गुरुपदपूजार्थं जलं समर्पयामि स्वाहा.
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सन्संगतिरूपा द्वितीयचंदनपूजा ॥२॥
दुहा. सत्संगति ए दीप छे, कुबुद्धि छे अंधार; सत्संगतिथी पामीये, विरवि विवेक विचार; ॥१॥ सत्संगनिसम सृष्टिमां, एक नही उपचार; पारससंग लोहन, सोनुं बने सुखकार; ॥२॥ सत्संगतिथी सुधर्या, जगमा आत्म अनंत; सत्संगति दे सहजमां, भवतारण भगवंत. ॥३॥ सत्संगति नित्ये करो, करवा भवानिस्तार; क्षणिक सुख लय पामशे, उपजे शांति अपार. ॥४॥ अगरचंदनना संगनो, महद जुओ महिमाय; अन्यक्ष निजसम करे, जीवनो शिव बनी जायः ॥५॥
ढाल-आवो आवो जशोदाना कंत-ए राग. नथुभाईनो निर्मल भाव, जाम्यो सारोरे; जेणे कराव्यो सद्गुरु संग, सुख करनारोरे; ॥१॥ सुखसागर श्री मुनिराज, जपतप भरीयारे; ए तो श्रावक धर्मना सार, कर्मना दरियारे. ॥२॥ बेसी एमनी पास अनेक, शास्त्र सांभालियारे माटे निर्मल एमनां चित्त, भक्तिमा भलियांरे. ॥३॥ एवा संगतना सुप्रताप, प्रीति बंधाणीरे; जैन धर्म विषे विश्वास, वस्तु बरताणीरे. ॥४॥
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शास्त्र सांभलवाथी रहेज, विपदा वामेरे; अति दुर्लभ शिव पुरपंथ, पाणी पामेरे.
॥५॥ माटे शास्त्र श्रवण हररोज, कोडे करीयेरे; धरी आगममांही लक्ष, भवजल तरीयेरे. ॥६॥ बांधी प्रभुना संगाथे प्रीत, पीत विचारीरे; जैनधर्म साचो छ एम, दृढमति धारीरे; ॥७॥ को लक्ष विषेथी अलक्ष, पक्ष तजीनेरे, कीधी सद्गुरुनी सेवाय, स्नेह सजीनेरे. ॥८॥ माटे नरभव पामीने जेह. सत्संग करशेरेः तेनो लक्षचोराथी स्हेज, आत्मा उद्धरशेरे. ॥९॥ थयो जैन विषे अनुराग, शास्त्र श्रवणथीरे; थाय अजित जगतमांहि जित, जन्ममरणथीरे. ॥१०॥
काव्य. त्रिविधतापहराय शुभात्मने, जगति जन्मवतां सुखदायिने । कुमतिकर्दमन्दविशोषिणे, परिदधाम्यतिशीतलचन्दनम् ॥१॥
ॐ ही श्री गुरुपदपूजार्थं चन्दनं समर्पयामि स्वाहा.
सम्यक्त्व ग्रहणरूपा तृतीयपुष्पपूजा. ॥३॥
दुहा. आगमज्ञान विना कदी, मानव मोक्ष न जाय; वस्तुमात्रनां तत्त्व ते, आगमथी समजाय
॥११॥
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मूढ बुद्धिनां मानवी, करतां तर्क अनेक; पण प्रमाण आगम विना, नावे सत्य विवेक ॥२॥ अंधारं अज्ञानमय, आगमदीप सुहाय; अंधारूं दीपक वडे, जाय हृदय समजाय ॥३॥ अंधजनोने लाकडी, अवनीपर आधार; ज्ञानअंध आगमथकी, निश्चित देशे जाय ॥४॥ ईश्वरने अवलोकवा, आगम सत्य प्रमाण: बुद्धिसागरनुं थयुं, आगममां शुभ ध्यान ॥५॥
ढाल- कानुडो न जाणे मारी प्रीत. ए राग. समकित माटे मद्गुरु देव,-केरुं शरण ग्रही ल्योरे. सम०ए टेक. शास्त्र श्रवणथी समकीत थाशे, जन्मोजन्मना रोगज जाशे; आनंद मंगल था हमेश, विभुने सहज वरी ल्योरे. सम०॥१॥ जे जे मार्ग प्रभू उर आवे. ते ते पथ सदगरु समजावे. पामे जेवु वावे तेवू, साचे ठाम ठरी ल्योरे. सम०॥२॥ अनादिकालथी आत्मभटकटतो,एक ठाम कदी नथी पल टकतो: शांति नथी वरी शकतो लेश, दीलडामांही डरी ल्योरे. सम०॥३॥ क्लेश बधा मनमाथी कापो, आत्मदेवने अनुभव आपो; स्थिरतामां मन स्थापो बेश, धणीनुं ध्यान धरी ल्योरे.सम०॥४॥ अखंड अनुभव थाशे सारो, देखाशे भवसिन्धु किनारो; भव तरवानो वारो एज, श्रेयस काम करी ल्योरे. सम०॥५॥
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अवलां शास्त्रो अवलां थाशे, जीवडा केरुं जोखम जाये; सुखना वायु वाशे हमेश, सुंदर देव स्मरी ल्योरे. सम०॥६॥ तृष्णा मनडुं तनथी त्यागे, अखंड वरना पद अनुरागे; जगमग ज्योति जागे बेश, निर्मल पथ विचरी ल्योरे. सम०॥७॥ आगम श्रवण कयाँ जेवारे, निश्चय कीधो प्रभुनो त्यारे मुरुवाणी उर धारे देव, नाम प्रभुनु उचरी ल्योरे. सम०॥८॥ बुद्धिसागर सद्गुरु राजा, धर्मग्रन्थ सांभलिया झाझा; अजित गरीब निवाजा आप, भवनं भातुं भरी ल्योरे.सम०॥९॥
काव्य. सुरभिदेहगुणेन सुवासित-सकलभूवलयाय जितात्मने । सुरनरेन्द्रगणस्तुतकर्मणे. सुगुरवे कुसुमानि यजामहे ॥१॥ ॐ ही श्री सद्गुरुपदपूजार्थं पुष्पाणि यजामहे स्वाहा
देशविरतिग्रहणस्वरूपा चतुर्थी धूपपूजा.
॥४॥
दुहा.
विश्वतणा भोगो विषे, रोग तणो भय छेज: उंचा कुलमां पतननो, तेमज भय वरतेज ॥१॥ धनिकने धनक्षय तणो, भय अतिशय वरताय: राजाने परसैन्यनो, भय भासेज सदाय ॥२॥ कायाने भय मरणनो, मायाने भय ज्ञान: अशांतिनो भय शान्ति छ, अमानिनो भय मान. ॥३॥
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पीड अने ब्रह्मांडमां, भय गाजे छे काल; काले कोइ बचे नही, अंते काल कराल. ॥४॥ माटे शाणा समजीने, घटमां धरी वैराग; निर्भय देशे जाय छे, देश विरति अनुराग ॥५॥
ढाल-ओधव क्यारे आवशे वनमालीरे.-ए राग. श्रावक केरा वृत्तनी बलीहारीरे, अंते आतमने ले उगारी.
श्रावक० ए टेक. प्रगट्यो श्रावकधर्ममां प्रेमरे, जेमा सुन्दर कुशल क्षेमरे: माटे तजीये कदी तेने केम ?
श्रावक० ॥२॥ गुरुदेव श्रावक व्रत पालेरे. जुलु बोले नही कोइ कालेर; व्रतधारी सुधर्म विशाले, ___ श्रावक० ॥२॥ सुखसागर सद्गुरु पासेरे, श्रावकधर्म रह्या विश्वासेरे; मन वरताणुं धर्म उल्लासे,
श्रावक० ॥३॥ वेचरदासर्नु मन रुडं गलियुरे, भाव भक्ति विषे दृढ भलियुरे; तृत जपमांही चित्तडं वलियु.
श्रावक० ॥४॥ षडावश्यक स्नेहे साधेरे, भाव वैराग्यमां रुडो वाधेरे; सदा स्नेहे गुरुने आराधे.
श्रावक० ॥५॥ दुर्लभ सद्गुरु केरी सेवारे, एवी सेवा मांही रुडा मेवारे; जेमां भाव वैरागना लेवा.
श्रावक० ॥६॥ दीक्षा लेवामां प्रेम प्रगटियोरे, मोह विश्वनां सुख केरो मटियोरे: जैनधर्म हृदयमांही स्टीयो.
श्रावक० ॥७॥
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पुण्य पूर्वतणां घणां जाग्यारे, सुख साधु तणां सारां लाग्यारे; दान गुरु पासे दीक्षानां माग्यां. श्रावक० ॥८॥ होय सत्यवैराग्यमां भावरे, पडशे प्रभुनो हृदयमा प्रभावरे; अजितसागरनो ए ठराव.
श्रावक० ॥९॥
काव्य. विषयवाजिवशीकरणौजसे, मदविषोद्धरणोत्तमशक्त थे। मतिमतां हृदि निश्चितमूर्तये, गुरुवरायसुधूपमहं यजे ॥१॥
ॐ ही श्री सद्गुरुपदपूजार्थं धूपं समर्पयामि स्वाहा ॥
दीक्षाग्रहणस्वरूपा पंचमी दीपपूजा ॥५॥
दुहा.
साधुपदथी सृष्टिमां, उपजे उत्तम ज्ञान; अनुकुलता सर्वे रीते, धरवा प्रभुतुं ध्यान पंचमहाव्रत पालतां, आवे दीव्य प्रदेश: आ दीव्य आत्मा धारतो, दीव्य प्रभुनो वेष ॥२॥ सहु साधनमा श्रेष्ठ छे, मुनिना पंचाचार; ग्रहस्थ करतां श्रेष्ठ छे, त्याग दशा सुखकार. ॥३॥ त्याग विना मुक्ति नथी, भाखे श्री भगवंत: जन्म मरणना रोगनो, आवे त्यागे अंत. ॥४॥ समजु लोके समजवो, मीथ्या आ संसार; त्याग दशाए पामवो ऊर्ध्वलोक सुखकार. ॥५॥
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..छे साधु. ॥२॥
ढाल बनजारा-राग. छे साधु पद सुखकारी, मनमां समजो नरनारी; ए टेक. तारामां सूरज जेवो, साधुभव समजो एवो; ज्यां प्रभुरस पूरण लेवो.
छे साधु. ॥१॥ छठा गुण स्थानक जावा, वलि पूरण पावन थावा;
छे अनुभव ल्हावा. जेवो अणुथी मोटो मेरु, मोटुं कंकरथी जेवू देरु, एवं जीवन मुनिजनके.
छे साधु. ॥३॥ ज्यां अनुपम सुख प्रसरे छे, विपदा जगनी विसरे छे;
मुनि हरदम प्रभु उच्चरे छे. छे साधु ॥४॥ मुखकारक जगमां साधु, जेणे आत्मतणुं सुख स्वायु, मन विश्वपतिमां वाध्यु.
छे साधु. ॥५॥ लीधी दीक्षा शिव सुखदाई, गण्यां जूठां भाइ भोजाई; स्वीकारी-भली साधुताई.
छे साधु ॥६॥ बुद्धिसागर धार्यु नाम, थया पोते पूरणकाम; ब्रह्मचर्य धर्यु सुखधाम.
छे साधु. ॥७॥ ओगणीसें सत्तावन वर्षे, मागशर सुदी सातम दिवसे; लीधी दीक्षा अतिशय हर्षे. छे श्रावक. ॥८॥ मुज मन मन्दिरमा राजो, जय जय गुरुजीनी थानो; कीर्ति जगमां प्रसराजो.
छे साधु. ॥९॥ भुखसागर गुरु शिर कीधा, जैन धर्मना ल्हावा लीधा; पछी अजित प्रभु रस पीधा. छे साधु. ॥१०॥
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काव्य. भविकनिर्मलबोधविकासिने, प्रथितकीर्त्तियशोविशदात्मने । महतकर्मचयाय तमोहरं, विशददीपमहं परिकल्पये ॥११॥
ॐ ह्रीश्री सद्गुरुपदपूजार्थं दीपं यजामहे स्वाहा ।
गुरु सेवारूपा षष्ठी अक्षत पूजा ॥ ६॥
दुहा. सद्गुरुनी पासे रही, सेवा करता नित्य: वण सेवा मेवा नही, ए सेवानी रीत. ॥१॥ महा वाट परलोकनी, गुरुविण नावे पार; सद्गुरुनी सेवावडे, झट आवे निस्तार. ॥२॥ अंधारी आ रातमां, सूझ पडे नही रंच; असत्य सत्य जणाय छे, ए मिथ्या छे संच. ॥३॥ हृदयद्वार सद्गुरु विना, कोण उघाडणहार ? सद्गुरु सेवन पुण्यनो, गणतां नावे पार. ॥४॥ गुरु गुरु गुरु मुखे रटे, धरे प्रभुनुं ध्यान ए साधुनो धर्म छे, पामे पद निर्वाण. ॥५॥ ढाल-आवजो आवजो आवजोरे-व्हेनी ? राग. सेवा थकी सर्व सुख सांपडे, गुरुनी रुडी सेवा थकी,
सर्व सुख सांपडे; मुक्ति तणी जुक्ति हाथमां जडे, गुरुनी रुडी. ए टेक.
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क्लेशकर्म जाय छे ने आत्मसुख थाय छे; शीद जीव विश्वमांही आथडे; गुरुनी. ॥१॥ काम क्रोध नव रहेने-दोष दीलना दहे; आत्मनो विवेक रुडो आवडे गुरुनी. ॥२॥ मोह तणां मूल बधां, जाय सहज वातमां; उखेडी शकाय ज्ञान पावडे, गुरुनी. ॥३॥ व्हाल थाय नाथमां ने, आत्म आवे हाथमां; जाय छे अशांति शमतावडे; गुरुनी ॥४॥ आज्ञा शिर धारताने,-प्रेमधर्म पालता, केम जीव खोटा ख्यालमां खडे ? गुरुनी. ॥५॥ गुरु विना मुक्ति नही,-सर्व संत उच्चरे; स्हेजमां प्रभुनो पंथ पर वडे गुरुनी. ॥६॥ रुडी मुख सागरजी, सेवा गुरुनी सजी; पाप बीज सेक्यां ज्ञान तावडे, गुरुनी. ॥७॥ आशिष रुडी लीधीने, लीला ल्हेर तो कीधी; कालरूप सर्प केम आभडे, गुरुनी. ॥८॥ गुरुजी ज्ञान दाताने, आपे सुख शाता; आजित नरक द्वार ना नडे;
गुरुनी. ॥९॥
काव्य. भवभयक्षतिकर्मविधायकान् , शुभगुणाचरणोत्तमशिक्षकान् । शिवनिकेतनकेतनतुल्यकान्, परिदधामि पवित्रतराक्षतान् ॥१॥
ॐ ह्री श्री सद्गुरुपदपूजाथै अक्षतान् यजामहे स्वाहा ।
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चारित्राराधन स्वरूपा सप्तमी नैवेद्य पूजा ॥७॥
कहेणी सम रहेणी नही, मले नही भलीवार; कहेणी सम रहेणी थतां, उपजे शांति अपार. माटे सत् चारित्रमां, संतो मूके भार; गुरु करुणा चारित्रमां, छे हेतु सुखकार. ॥२॥ कर्म टले काँथकी, खरेखरो छे न्याय: सत्कर्मेथी विश्वनां, असत्य कर्म बलाय. ॥३॥ वृष्टि तणां बिंदु तणी, गणना कदिये थाय; भूमि केरा भारनो, आंक कदी अंकाय. ॥४॥ धर्म तणा पालनतणी, केम किंमत अंकाय: स्वल्प धर्मने पालतां, प्राणी पावन थाय.
___ ढाल-नाथ कैसे गजको बंध छोडायो. त्यागी केरा धर्म कर्म सहु पाले, पीडमांही प्रभुजीने भाले;
___ त्यागी. ए टेक. ग्रामनगर मांही संचरताने, निर्मल नाथने न्याले: सत्कर्मेथी पाप करमनां, बीज बधां गुरु बाले. त्यागी. ॥१॥ संतोनी संगत निशदिन करता, मन रारवी ज्ञानहिमाले; योगतणा अभ्यासे करीने, बाह्यवृत्ति पाछी वाले. त्यागी. ॥२॥ द्रव्यने जाण्यां अद्रव्यने जाण्यां, क्लेश काढया पाणी काले; खल जनने पण उपदेश आपी, खांते खूटलता खाले.
त्यागी. ॥३॥
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द्वैतने जाण्युं अद्वैतने जाण्यु, जाणी गीता गाले गाले; गंभीर ग्रन्थ लख्या घणा जेथी, वांची जनो दोष टाले.
त्यागी. ॥४॥ सद्गुणने घट भीतर शोध्या, अवगुण काढया उचाले: ज्ञानतणी गंगा प्रेम प्रभावे, सहजे चढावी उच्छाले.
त्यागी. ॥५॥ अनेक लोकने उपदेश आप्या, वृत्ति ठरावी छे ठाले. स्नेहथी समरण सोऽहं- करता, मन चढव्यु उंचा माले;
त्यागी. ॥६॥ अवधूत वेश निरंतर शोभे, पाप दबाव्यां पाताले: आत्म परात्मनुं ऐक्य साधीने, वृत्ति प्रभुपदे वाले.
त्यागी. ॥७॥ एक निरंजन नाथ जगाइयो, चलव्युं न मन बीजे चाले; धन्य धन्य बुद्धिसागर गुरुदेवा, अजित हृदयमां निहाले.
त्यागी. ॥८॥ काव्य. जैनेन्द्रशासनधुरन्धरपुङ्गवाय,
ज्ञानात्मने विजितलौकिकभावनाय । श्रद्धालतानविनवारिधरायशुद्धं,
नैवेद्यमुत्तममहविनिवेदयामि ॥१॥ ॐ ह्री श्री सद्गुरुपदपूजार्थ नैवेद्यं यजामहे स्वाहा
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१४
ध्यान समाधिस्वरूपा अष्ठमी फलपूजा
दुहा.
ध्यान समाधि योगनुं, फल वर्णन नव थाय; अनंत भवथी भटकती, वृत्ति स्थिर थई जाय. सहु साधनमां श्रेष्ठ छे, ध्यान समाधि योग; पूर्व जन्मना पुण्यथी, पण ते पामे कोक. गेबी वाजां गडगडे, उपमा केम अपाय; अमृत रसना स्नानथी, स्नेहे शांत थवाय. चंचलता आ चित्तनी, ध्यान वडे वश थाय; चढे खुमारी आत्मनी, जन्म मरण पण जाय, संत तणा सहवासमां, योग तणो अभ्यासः गुरु की स्नेहथी, नथी अज्ञात जराय. ढाल - विमलाचलथी मन मोरे, म्हने गमे न बीजे क्यांय. ए रोग.
॥५॥
॥१॥
112.11
11311
॥४॥
बुद्धिसागर सद्गुरुनोरे, जश वर्यो चारे पास; सुखकारक सेवक जननीरे, पूरण करता सहु आश. बुद्धि० ए टेक० धरी धर्मध्यानमां प्रीति, जग प्रेमे लीधु जीती; राखी साधुनी रीतरे, कीधो उरमां उज्जास. बुद्धि. ॥ १ ॥ जगनुं सुख जाण्युं काचुं, जाण्युं प्रभुनुं सुख साचुं; हुं एज गुरुने याचुरे, मारो होजो चरणे वास, बुद्धि ॥२॥ कर्यो जन्म परम उपकारी, तजी दुनीयां केरी यारी; प्रभु भक्ति कीधी प्यारीरे, तोड्या नरकना त्रास. बुद्धि. ॥ ३ ॥
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एकांत विषे बहु वसता, प्रभुजनने देखी हसता; क्षण धर्मविना नव खसतारे,तजी विश्वतणाज विलास. बुद्धि.॥४॥ पूरक कुंभक बहु साध्या, इश्वरने घटमां आराध्या, मनोभाव प्रभुमा वाध्यारे, तजी क्लेश अने कंकास.बुद्धि.॥५॥ राजा पण चरणे नमता, दर्शनथी मनमां शमता; तमे तत्पदमांहि रमतारे, थई सत्य गुरुना दास. बुद्धि.॥६॥ तमे साधी सिद्ध समाधि, तमे कापी जगनी व्याधिः तजी अंतर केरी उपाधिरे,करी भव भ्रमणानो हास. बुद्धि.॥७॥ थोडा तम सरखा थाशे, भजता प्रभु श्वासो श्वासे, अमथी क्यम गुण विसराशेरे,देजो प्रभुमा विश्वास. बुद्धि.|८॥ अमे लीधुं आपनुं शरणुं, हवे कापो जन्मने मरणुं, गुरु अमृतनुं छो झर[रे, सूरि अजितने ए आश. बुद्धि.॥९॥
गुरुपद पूजा.
कलश. घोडीलारे ते क्यांथकी लाव्यारे-.ए राग. मारी जेवी मति प्होंची, तेवारे गुरुना गुण गाया. ए टेक. सद्गुरु मारी संसृति हरजो, अविचल राखजो मायारे.
गुरुना० ॥१॥ संसारनी प्रीति स्वारथ सूधी, जर ज्योबन जायारे.
गुरुना० ॥२॥ तपगच्छ हीरविजयसूरि पाटे, परंपरा मांही आव्यारे.
गुरुना० ॥३॥
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सद्गुरु केरु ध्यानज धरतां, फरी धरीये नही कायारे.
गुरुना० ॥४॥ शांतिदाता गुरु बुद्धिसागरजी, भव्यपणे मन भाव्यारे;
गुरुना० ॥५॥ उपदेश आप्यो ने कंकास काप्यो, समजाव्या श्रीजगरायारे.
गुरुना० ॥६॥ गुजरात देशे विजापुर गामे, जन्मीने अंते समायारे;
गुरु०॥७॥ प्रगटाची घटमांही ज्ञान खुमारी, अनुभव गुण उपजाव्यारे.
गुरुना० ॥८॥ वास विजापुरमा रहीने, गुरुगुण मुजथी गवायारे.
___ गुरु० ॥९॥ अजितमूरि एवी अरज करे छे, करुणा करो गुरुरायारे.
गुरुना० ॥२०॥ काठय. वसन्ततिलकावृत्तम्. त्रैलोक्यतारकगुणाय वरप्रदाय,
सर्वात्मना विहितजन्तुदयोदयाय । निर्वृत्तिधर्मपथदर्शकनायकाय,
सम्यक् फलानि शुभदानि निवेदयामि ॥१॥ ॐ ह्री श्री सद्गुरुपदपूजार्थ फलानि समर्पयामि स्वाहा.
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गुरुपदपूजा शास्त्रविशारदजैनाचार्ययोगनिष्ठश्रीमद्बुद्धिसागर
सूरीश्वरपूजा. प्रथमा जलपूजाक
दुहा. स्यावादना शोभिता, तीर्थकर शिरताज; महावीर महाराजने, प्रेमे प्रणमुं आज ॥१॥ जयशाली जिनधर्मनी, सत्कीर्तिना स्तंभ स्वामी सुधर्मा विराजता, गुरु गणधर गुणवंत. ॥२॥ परंपरामां तेमनी, हीरविजयसूरिराज; अनुक्रमे पछी उपज्या, रविसागर सुख साज. ॥३॥ सुखना सागर सद्गुरु, सुखसागर शोभाय; मुनिवर महाप्रभावना, बुद्धिसिन्धु सदाय. ॥४॥ पूजा रचुं हुं प्रेमथी, सद्गुरु करो कृपाय: सफल करो मुज वाणीने,जन्म मरण मटि जाय. ॥५॥ ढाल-ओधा अमने हरि तो व्हाला. ए राग.
बुद्धिसागर गुरुजीनी बलिहारी, वारे वारे प्रेमथी जाउं वारी. बुद्धि० ए टेक० गुजरातनो प्रांत उत्तर सारो,
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साबर केरो सुखकारी किनारो; विजापुर गाम अंतर धारो. बुद्धि० ॥१॥ श्रावक तणी वस्ती घणी सारी, लागे प्रभु भक्तोने प्यारी: जिनालयो शोभे छे सुखकारी. बुद्धि० ॥२॥ पाटीदार प्रेमी पूरा शोभे छे, अहिंसक वृत्तने पाले छे दानी गुण केरो ल्हावो लेछे. बुद्धि० ॥३॥ तेमां गुरुए जन्म सुखद लीधो, मानव केरो जन्म सफल कीधो; संसारने बोध सिद्धो दीधो. बुद्धि० ॥४॥ गुरु कर्या सुखसागर स्वामी, खलकमांही राखी नही खामी; जोडी दृष्टि साचा धर्म स्हामी. बुद्धि० ॥५॥ करी गुरुसेवा खरी खांते, तज्या रागद्वेषने नीरांते; अजित कीर्ति प्रसरी बधे प्रांते. बुद्धि० ॥६॥
काव्य. सकलवृद्धिकराय महात्मने, निखिलकर्ममलक्षयकारिणे। गुरुवराय वरिष्ठगुणात्मने, जलमहं विमलं परिकल्पये ॥१॥
ॐ ही श्री गुरुपदपूजार्थं जलं समर्पयामि स्वाहा,
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अथ द्वितीया चन्दनपूजा.
दुहा. गुरु कर्या मन मानता, सुखसागर मुनिराय, सद्गुरु वचन सुण्या विना, भक्ति कदी नव थाय. ॥१॥ गुरु विण ज्ञान मले नही, गुरु वगर नही ध्यान; गुरु वगर गति नव मले, गुरु वण नही भगवान. ॥२॥ गुरु बतावे ज्ञानथी, परमात्मानो पंथ; शुं समजे अज्ञात जन, समजे विरला संत. ॥३॥ शिष्य स्वभावे संगमां, करी सेवा अति श्रेष्ठ, संसारी सुख परहयाँ नक्की जाण्यां नेष्ट.. ॥४॥ सद्गुरुनी करुणा वडे, उत्तम पाम्या ज्ञान: आ जन्मे जाणी लीधा, घट भीतर भगवान. ॥५॥
ढाल-अलबेलीरे अंबे मात. ए राग. छ महिमा अपरंपार, श्री सद्गुरु केरो; आवे निर्मल आचार, जाय फोगट फेरो. ए टेक० श्री सद्गुरुजी ज्ञान प्रतापे, प्रगटे घटमां ज्ञान जो जाय अंधारु अज्ञान केलं, थाय प्रभुनुं ध्यान. श्रीसद् ॥१॥ सद्गुरुनी करुणा सारी, जेवी चंदन छायजो; भवाटवीना ताप समूला, जीवडा केरा जाय; श्रीग्द्॥२॥ सद्गुरु पासे दीक्षा पाम्या, पाम्या विमल विचारजो; धर्मभ्यान पण प्रेमे पाम्पा, वली उत्तम आचार श्रीसद् ॥३॥
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स्वादादनी समजण पाम्या, पाम्या शांति अपारजो; दयाधर्म दीलडामां पाम्या, धर्मक्रिया सुखकार. श्रीसद्॥४॥ परोपकारमां प्रीति पाम्या, पाम्या परम प्रसादजो; हृदयशुद्धि परिपूरण कीधी,काप्या क्लेश प्रमाद.श्रीसद्॥५॥ सागरमां जेम स्वातीबिंदु, ग्रहण करे कोइ जंतजा; सद्गुण सघला एम समाणा,उपज्यो उदय अनंत.श्रीसद्॥६॥ श्री सद्गुरुनी पूर्ण कृपाथी, सफल थयां सहु काजजो; अजितसागरना सद्गुरु साचा, बुद्धिसागर महाराज.
श्रीसद् ॥७॥
काव्य.
त्रिविधतापहराय शुभात्मने, जगति जन्मवतां सुखदायिने । कुमतिकर्दमन्दविशोषिणे, परिदधाम्यतिशीतलचन्दनम् ॥१॥ ॐ ही श्री गुरुपदपूजार्थं चन्दनं यजामहे-स्वाहा
__ अथ तृतीया पुष्पपूजा-दुहा. परमपदारथ प्रभुपदे, लागी लगन अपार, छोळयो सिन्धु सुखतणो, लाग्युं विश्व असार; ॥१॥ जबरां बंधन जगतणां, जबरां जगनां दुःख; गुरु करुणा वण नव छुटे, थाय न साचं सुख; ॥२॥ गुरुविना गति नवमले, गुरुविना नही मोक्ष; सहु वस्तु सद्गुरु विना, प्रगट छतांय परोक्ष; ॥३॥ सहु वस्तु पैसे मले, सद्गुरु वस्तु अमूल्य; अजित कहे श्रीगुरुविना, कर्यु कराव्यु धूल; ॥ ४ ॥
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२१
वाणी वर्णन | करे, महद् पुरुषमहिमाय; केवल शरण स्वभावथी, प्राणी पावन थाय; ॥ ५ ॥
ढाल तेजेतरणिथीवडोरे-ए राग. प्रेमथकी परमात्मारे, पीडविषे पेखाय; कोटी उपाय करो छतारे, सद्गुरुथी समजाय, होपाणी सद्गुरु संगत कीजीयेरे; प्रेमसुधारस पीजीयेरे; थाय सफल अवतार. एटेक. शुं समजे मतिमंदतेरे. अनुभव केरोपंथ, वाणी वर्णन नव करेरे नवआवे कदी अंतः होपाणी सद्गुरु संगत कीजीयेरे, प्रेमसुधारस पीजीयेरेः थाय सफल अवतारः ॥१॥ किंमत सघला विश्वनीरे, एक तरफ अंकाय, पण किंमत आत्मातणीरे; कदीये केम कराय; होपाणी सद्गुरु संगत कीजीयेरे, प्रेमसुधारस पीजीयेरे, थाय सफल अवतार; ॥२॥ आत्माने नव ओलख्यो, देश रह्यो छे दूर: संगत सद्गुरुनी करोरे, हाजर होय हजूर; होपाणी सद्गुरु संगत० प्रेम० थाय० । पार्श्वमणिथी विश्वनारे, सुखनी प्राप्ति थाय; पण गुरुनी करुणा थकीरे प्राणी प्रभु बनी चाय; होप्राणी सद्गुरु० प्रेम० पाय०
भा बुद्धिसागरजी सद्गुरुरे; मलिआ मुजने एक;
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१२
सफल जन्म म्हारो कर्योरे, समज्यो विरतिविवेक; होपाणी सद्गुरु० प्रेम० थाय०
॥५॥ काल ज्वाला ठंडी करीरे, दीधो घट उल्लास; समजान्यो शुभ सानमारे, प्रभुजी हारीपास; होमाणी सद्गुरु० प्रेम० थाय०
" ॥६॥ वारंवार प्रणामछेरे, सद्गुरु चरणसरोज; प्रेमपंथीना हृदयनीर, खरेखरी करीखोज; होपाणी सद्गुरु० प्रेम० थाय० भव अटवीमां भटकतारे, हेते झाल्यो हाथ: अजितसागरना जन्मने, कर्यों अनाथ सनाथ होमाणी सद्गुरु० प्रेम० थाय०
॥८॥
॥७॥
काव्य.
सुरभिदेहगुणेन सुवासित-सकलभूवलयाय जितात्मने । पुरनरेन्द्रगपरदुतकर्मणे, मुगुरवे मुटुमानि यमामहे ॥१॥ ॐ ही श्री गुरुपदपूजार्थ पुष्पाणि यजामहे-स्वाहा
चतुर्थी धूपपूजा.
दुहा. चोथी पूजा धूपनी प्रगटावे गुरुप्रेम: दोष दबावे दीलतणा, राखे कुशल खेम; ॥१॥ गुरुचरणे शुभस्नेहथी, वारंवार प्रणाम; गुरु करुणाथी पामीए, शिवमन्दिर सुख धाम ॥२॥
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सम्यकदृष्टि गुरुविना, कोण बतावणहार; सम्यक् दृष्टि विना तथा, कोण बचावणहार; ॥३॥ जैनधर्मना सुख भर्या, अति उत्तम मुनिराज परोपकारी कार्यथी, सिध्यां सघलां काज; ॥४॥ एवा जन थोडा थशे, पावनपरम सुजाण; पुणे कृतार्थं बनी रह्या, मोक्षनु राख्युं मानः ॥५॥ __ ढाल. नाथ कैसे गनको बंध छुडायो-५ राग श्रावकव्रत भवजल तरवानो वारो, नावेगुरु विण पार किनारो, श्रावक० ए टेक. देशथी विरति पंचम गुणस्थानक, साची शान्तिनो उतारो; दीलडाना दोष बधा दूर करवा, समकित सद्गुण प्यारो,
श्रावक० ॥१॥ कालने काप्या कंकासने काप्या, उत्तम आव्या विचारो; का नेता रावला गया,
जाप हला);
श्रावक० ॥२॥ प्रेम पावक केरी बलवंती ज्वाला, ध्याननो धूप छे सारो स्याद्वाद दृष्टि घाणमार्गे थई, अध्यात्म गंध प्रसार्यों;
श्रावक० ॥३॥ जगवासना केरो रोग हठाव्यो, मोह खपान्यो छे खारो; सत्कीर्ति सहु जगमांही प्रसरी, उत्तम सहुना उच्चारो;
श्रावक० ॥४॥ आत्म परात्मनुं ज्ञान प्रगट करी, ममतानो मार्यों ठठारो;
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अनंत कालनी खोयेली वस्तु; पाम्या छे खोली पटारो;
श्रावक० ॥५॥ बहु गुणवंता बुद्धिसागरजी, अमने हवे न विसारो; अजितसागर विनवे अति भावे, जेवो तेवो हुँ तमारो.
श्रावक०॥६॥
काव्य. विषयवाजिवशीकरणौजसे, मदविषोद्धरणोत्तमशक्तये । मतिमतां हृदि निश्चितमूर्तये, गुरुवराय सुधृपमहं यजे ॥१॥
ॐ ही श्री गुरुपदपूजार्थं धूपं समर्पयामि-स्वाहा.
अथ पंचमी दीपपूजा.
दुहा. योगाभ्यासी तन हतुं, योगाभ्यासी चित्त; योगाभ्यासी भावथी, रुडी राखी रीत. ॥१॥ चित्तवृत्तिओ रोकीने, कीधी एकाकार; ध्येय ध्यान ध्याता तणा, जाण्या गृढ प्रकार. ॥२॥ निर्मल जेनी पीतडी, निर्मल जेनी रीत: मन इन्द्रिय कबजे काँ, वात तजी विपरीत. ॥३॥ कोमल जेनी वाणीमां, वरसे अमृतधार; वली वलीने चरणमां, प्रणाम वार हजार. ॥४॥ शोध्यां आगम निगमने, वली जाण्यु वेदांत; अन्य धर्मना सारने, सहज कर्यों विज्ञात; ॥५॥
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ढाल-लाल डंका वाग्या तमारा देशमां. ए राग.
अमने रुडो लाग्यो तमारो आशरोरे, सत्य धर्भ केरो पंथ कर्यों पांशरोरे. अ० ॥१॥ तमे साचा योगभ्यासी जोगीडारे; गुरु भगवानना भावकेरा भोगीडारे. अ० ॥२॥ जाणी जीवशिव केरी एकतारे, सदा साधुना समाजमांही शोभतारे; अ० ॥३॥ तमे अलख प्रदेशी आतमारे, जाण्या संत महंते महातमारे
अ० ॥४॥ यम नियमने जाण्या तमे प्रेमथीरे, वाल्यां योगनां आसन घणा नेमवीरे; अ० ॥५॥ प्राणायाम तमे कर्या भले भावथीरे, पूरक कुंभक रेचक घणा ल्हावथीरे. अ०॥६॥ मानव देहना महात्मने अनुभव्युरे, मल्युं देहy रतनते खरं कयुरे;
अ० ॥७॥ धयुं ध्यान प्रभु केरु दिन रातमारे, साधी समाधि वसीने एकांतमारे; अ० ॥८॥ हती वचन सिद्धि मुरू आपनेरे, पाल्यो पुरण ब्रह्मचर्य प्रतापनेरे. अ० ॥९॥ तमे वांझीआने बंधाव्यां पारणारे, शोभाव्यां बालकनी वस्तिथी बारमारे. अ० ॥१०॥ गुरु आंधलाने आंख्यो आपतारे,
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सदा रोगी तणा रोग कष्ट कापतारे. अ० ॥११॥ रहेशे विश्वमा अविचल नामनारे, अजितमूरि गुण गाय गुरु आपनारे. अ० ॥१२॥
काव्य. भविकनिर्मलबोधविकासिने, प्रथितकीर्तियशोविशदात्मने। महतकर्मचयाय तमोहरं, विशददीपमहं परिकल्पये ॥१॥ ॐ ही श्री गुरुपदपूजार्थ दीपं यजामहे. स्वाहा.
अथ षष्ठी अक्षत पूजा.
-दहा
सर्व धर्मना मर्मने, समज्या श्री सूरि राज. नमन करे नरनाथ पण, शोभ्यां संयम साज, ॥१॥ ध्यान धयु शुभ धर्मर्नु, अवगुण कीधा त्याग; एक अविचल प्रभु विषे, हतो घणो अनुराग. ॥२॥ गर्न धम् श्राचार्गनो, कों दलो सहयोग, व्यापक दृष्टि बहु हती, करी शमन सहु शोकः ॥३॥ जगत तापथी तपितने, कल्पवृक्षनी छाय. शो महिमा मुख वर्णवू, गुण गंभीर गुरु राय, ॥४॥ आनन्द धनना अर्थनी, खरेखरी करी खोज: एक अलख आराधना, रसपूरण प्रभु रोज. ॥५॥ ढाल-मा पावा ते गढथी उतया महाकालीरे. ए राग अक्षत भक्तिना आपीये, सूरिराजारे. अमे क्लेश जगतना कापीये, गुण झाझारे, ॥१॥
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२७
सुख दुःख आपे सरखां गण्यां, सूरिराजारे. तमे नाम निरंजननां भण्या, गुण झाझारे; ॥२॥ करुणालु मन निर्मल हतुं, सूरिराजारे. स्यावाद विषे निश्चल हतुं, गुण झाझारे; ॥३॥ शुभथाय जगतनुं जे रीते, सूरिराजारे. तमे वर्तन करता ए रीते, गुण झाझारे;
॥४॥ अति गहन गति हतो आपनी, सरिराजार. तजी व्याधि बधी जगतापनी, गुण ज्ञाझारे; ॥५॥ तप त्याग तणी सीमा नही, मूरिराजारे. राखी लज्जा काचां कर्मनी, गुण झाझारे; महीपति मरजादा राखता, सूरिराजारे. तमे भव्य वाणी मुखे भाखता, गुण झाझारे; ॥७॥ मीथ्या दृष्टि त्यागी हती, मूरिराजारे. रुडी रहेणी विमल राखी हती. गुण झाझारेः ॥८॥ संयममा मन शोभ्यु हतुं, सूरिराजारे. सूरि अजितनुं चित्त थोभ्युं हतुं, गुण झाझारे; ॥९॥
काव्य. भवभयक्षतिकर्मविधायकान,
शुभगुणाचरणोत्तमशिक्षकान् । शिवनिकेतनकेतनतुल्यकान्,
परिदधामि पवित्रतराक्षतान् ॥१॥ ॐ ही श्री सद्गुरुपद पूजाथै अक्षतान् यजामहे स्वाहा.
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अथ सप्तमी नैवेद्य पूजा.
-दुहा
तत्वज्ञाने त्रण लोक, पूर्ण थयुज प्रसिद्ध: ज्ञानी जन ज्ञानी गणे, सिद्धो जाणे सिद्ध. ॥१॥ भक्तो जाणे भक्त छे, संतो जाणे संत; अकल गति गुरु आपनी, गुणी जाणे गुणवंत. ॥२॥ ध्यानी जने ध्यानी गण्या, योगि जाणे सुयोग: सज्जन तो सज्जन गणे, नीरोगी नीरोग. ॥३॥ पंडित जन पंडित गणे, त्यागी जाणे त्यागी: अकल कला सूरिराजनी, शी गति समजे रागी. ॥४॥ मंदमति जाणे नही, मुनि आपनो ममः समज्या ते सज्जन थया, धींगो जाण्यो धर्म. ॥५॥ ढाल-लाल डंका वाग्या तमार। देशमारे. ए राग.
गुरु आपनी नैवेद्य पूजा सातमीरे, कशी तप जपमा न राखी कमीरे. गुरु० ॥१॥ पुरा प्रेमथी पाल्या पंचाचारनेरे, रुडी कहेणी तेवी करणीथी आचारनेरे.गुरु०॥२॥ रच्या ग्रन्थ तमे एकसो आठ छेरे; प्रभु पंथना भरेला प्रेमी पाठ छेरे. गुरु० ॥३॥ राज रजवाडा आपने जाणतारे, . वली श्रद्धालु राखता मानतारे. गुरु० ॥४॥
जैनशास्त्रनी जुक्ति घणी जाणी हतीरे,
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स्याद्वादनी मोघी मता माणी हतीरे. गुरु० ॥५॥ जूनां मंदिर अनेक सुधरावीयारे, जैनेतरमा अहिंसा बीज वावीयांरे. गुरु० ॥६॥ साचा धर्मनो प्रचार तमे बहु कोरे, सर्व धर्ममांथी सार तमे उर धोरे. गुरु० ॥७॥ देश दाझ पण आप केरा मन हतीरे, स्वदेशी भावना प्रचारता छानं नथीरे. गुरु०॥८॥ जेम कल्पतरु सर्व वृक्षराज छेरे. एम आपनो अवतार मूरिराज छेरे. गुरु० ॥९॥ प्रेम भावनां नैवेद्य आपीये अमेरे, पुरा प्रेमथी स्वीकारजो मूरि तमेरे. गुरु० ॥१०॥ मूरि अजितनी हाथ जोडी विनतीरे,
अरज देशकालनी कशी छानी नथीरे गुरु०॥११॥ ढाल बीजी-सजनी मारी, क्यां रमी आवी रजनी
साचं बोलोजी-ए राग. सांभलज्यो सद्गुरुजी साचा, सेवकनी एक अरजी;
-उरमां धारोजी.अनंत भव अथडाणो आत्मा, मानी पोतानी मरजी;
-पार उतारोजी.- ॥१॥ रंक सेवक अमे सदा तमारां, ज्ञान ध्यान नव जाण्यां;
-उरमां धारोजी.
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प्रेमभावना राखो प्राणीपर, पोता समान प्रमाण्या;
-पार उतारोजी.- ॥२॥ साधु जनोना संग न कीधा, अवली उच्चारो वाणी;
-उरमा धारोजी.सद्गुरु शब्दो दीलमां न धार्या, जोग जुक्ति नव जाणी;
-पार उतारोजी.- ॥३॥ एक निरंजन अलखनी खातर, जगसुख आपे त्याग्यां;
-उरमां धारोजी.सद्गुरु सेवा पूर्ण करी तमे, मुक्ति तणां दान माग्यां;
-पार उतारोजी.- ॥४॥ मनोहारी रुडी मूर्ति तमारी, याद अहोनिश आवे.
-उरमा धारोजी.सद्गुरु भावे संभारीने, आंखडली आंसु लावे;
____ -पार उतारोजी.- ॥५॥ अविद्या आवरण दूर कयौं अने, सहज समाधि साधी;
____-उरमां धारोजीअनंत उपकार विश्वजनो पर, प्रजाली पापनी व्याधी;
-पार उतारोजी.- ॥६॥ निवास करजो अम दिलडामां, आशीर्वाद रुडा देजो;
-उरमा धारोजी.ध्यान भजनमां धैर्य आपीने, खरी खबर हवे लेजो;
-पार उतारोजी.- ॥७॥
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कोमलतनना कोमल मनमां, कोमल भाव करावो;
___-उरमां धारोजी.जे जे प्रकारे सारं अमारं,-थाय ए लक्षमां लावो;
___-पार उतारोजी.- ॥ आप समुं भवसागर तरवा, शरणुं नथी कोइ साचुं;
-उरमां धारोजी.आप कृपाथी जाणी लीधुं छे, कोटि रीते जग काचुं;
-पार उतारोजी.- ॥९॥ अजितसागर शरण थयो छे, बीजानो कदी न थवानो, निर्मलभावे आवरण कापी, ऊर्द्ध प्रदेशे जनारो;
. -पार उतारोजी,-॥१०॥
काव्य. जैनेन्द्रशासनधुरन्धरपुङ्गचाय,
ज्ञानात्मने विजितलौकिकभावनाय । श्रद्धालतानविनवारिधराय शुद्धं,
नैवेद्यमुत्तममहं विनिवेदयामि. ॥१॥ ॐ ह्री श्री सद्गरु पदपूजार्थ नैवेद्यं यजामहे स्वाहा
. अथ अष्टमा फलपूजा.
दुहा. ज्ञानसमूं बीजुं नथी, उत्तम साधन एक ज्ञाने घटमां थाय छे, विरबि विचार विवेक
॥१॥
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३२
ज्ञानामृत आगल बधां, औषध व्यथ सदाय: दोष टले आत्मा तणा, अनुभव ज्योति जणाय ॥२॥ ज्ञान तणुं वर्णन करे, शारद देवी सदाय; तोपण आखा भव विषे, संपूर्ण नव थाय ॥३॥ ज्ञानचिन्तामणि कर ग्रह्यो, शुं नाणानुं काम; अवनीमां उत्तम थयो, पूर्ण काम अभिराम ॥४॥ ज्ञान वडे आ विश्वमां, शिव जीवनो थइ जाय; ए ज्ञाने उत्तम थया, बुद्धीश्वर मरिराय ॥९॥
ढाल-वीर कुंवरनी वातडी कोने कहीए, ए राग. हारे ज्ञान पाम्यारे ज्ञान पाम्या, हारे बुद्धिसागर सार; अनुभव उत्तम पामीया, ज्ञान पाम्या०-ए टेक० शुद्ध ज्ञानरूपी फल चाखीने, रस पीधो,
हारे रस पीधोरे रस पीधो; हारे ज्ञानामृत निरधार, अनुभवसागर उच्छल्यो. ज्ञान०॥१॥ जेम सर्वे नदीयो वही जाय छे, सिन्धु हामी;
हारे सिन्धु सहामी रे सिन्धु हामी, हारे एवं आपनुं ज्ञान, सर्वे धर्मों वस्तु एक छे; ज्ञान० ॥२॥ नव करशो निंदा तमे कोईनी, सवलं समजो,
__ हारे सवल समजोरे सवल समजो; हारे समकित उपदेश, आत्मापरात्मा एक छे. ज्ञान०॥३॥ तमो समदर्शी सद्गुण भर्या, संत साचा,
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३३
हारे संत साचारे संत साचा: हारे मन वाणीनी पार, दृष्टि हती रुडी आपनी ज्ञा०॥४॥ गुणग्राहीलोको पासे आवता, बोध देता,
हारे बोध देतारे, बोध देता; हारे जेने जे जोइए तेम,अतुलितगतिमति आपनी-ज्ञा०॥५॥ जाणे महिमा शुं मूढमति जनो, जाणे ज्ञानी,
हारे जाणे ज्ञानीरे जाणे ज्ञानी: हारे आपनो महिमाय,निर्मल शांत स्वभावना ज्ञान०॥६॥ आप अवतारने धन्य धन्य छे मुनिराजा,
हारे मुनिराजारे मुनिराजा; हारे रुडो अखंड प्रताप,चन्द्र सुरज सुधी वर्तशे ज्ञा०॥७॥ सर्व संशय छूटी गया हता, छूटी ग्रन्थी,
हारे छूटी ग्रन्थीरे छूटी ग्रन्थी; हारे गुरु दीनदयाल, देह परम उपकारनो. ज्ञान० ॥८॥ आप चरणे अमारा प्रणाम छे, लाखो फेरा,
हारे लाखो फेरारे लाखो फेरा; हारे स्वामी करजो स्वीकार, अजितमूरि एम विनवे.
ज्ञान पाम्या० ॥९॥
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३४
कलश, धन्य महावीर उपगारी एराग. रटण एक सद्गुरुर्नु लाग्यु, फरीने फरी बीजे मन थाक्यु; ए टेक. यथामति गुरुजीना गुण गाया. लागीरे अविचल गुरुनी माया; माथेरे भारे सद्गुरुनी छाया, रटण ॥१॥ मानव भव फरी फरी नाज मले. अविद्यानां आवरण नाज टले, गुरुजी थकी भवकेरो फेरो फले, रटण ॥२॥ गुरुरे मल्या बुद्धिसागर साचा. जाण्यारे भाव जगत तणा काचा; सफल थइ आजे विमल वाचा, रटण० ॥३॥ संवत ओगणीश अने ब्याशी. पोष नामे महिनो सुख राशि; तिथि बुध तेरस छे खाशी, रटण० ॥४॥ साबर केरो तट शोभे सारो. . उत्तर गुजरात उरे धारो; विहार विजापुरमांहि प्यारो, रटण० ॥५॥ गुरुनी पूजा अहीं पूरी कीधी. मूरिए मति आपी घणी सीधी: कीधीरे स्तुति दैवे जेवी दीधी, रटण ॥६॥
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मूरिजी हीरविजय महाज्ञानी. नेमना शिष्य सहजसागर ध्यानी; परंपरा परम पावन जाणी, रटम०७N अनुक्रमे रविसागर जाण्या. तेओना शिष्य सुखसागर मान्या; तेओना बुद्धिसागर पीछाण्या, स्टण० ॥८॥ महायोगी ध्यानी जगत जाणे. श्रावक अने अन्य बधा माने; आचार्य पद सहु जन परमाणे, रटण ॥९॥ तेनोरं पदपंकज रजहुं छु. अजित अब्धि प्रेमेथी प्रणमुं छ: आशिष अंते सर्वे जीवोने दउँछु, रटण०॥१०॥
काव्य. त्रैलोक्यतारकगुणाय वरप्रदाय,
सर्वात्माने विहितजन्तुदयोदयाय। निर्वृत्तिधर्मपथदर्शकनायकाय, ___सम्यक् फलानि शुभदानि निवेदयामि ॥१॥
ॐ ह्री श्री सद्गुरुपदपूजार्थ फलानि समर्पयामि स्वाहा।। शास्त्रविशारद योगनिष्ठ श्रीमद्बुद्धिमागरसूरीश्वरशिष्यरत्नप्रसिद्धवक्ता जैनाचार्य श्रीमद्अजितसागरसूरिविरचित गुरुपदपूजा
समाता ॥
इति
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३६
गुरु आरति, जयदेव जयदेव जय जय गुरुदेवा, गुरु जय जय गुरुदेवा, बुद्धिसागर महाराजा, सफल करो सेवा;
जयदेव जयगुरु देव. ॥१॥ निर्मल ज्ञान विचार, धर्म तणा ज्ञाता; गुरु धर्मतणा ज्ञाता; महिमा केम कथाय, पाप ताप त्राता;
जयदेव जयगुरु देव ॥२॥ सफल कयौं अवतार, बोध को जनने, गुरु बोध कों जनने; योगे निर्मल कीधां, तन साथे मनने;
जयदेव जयगुरु देव. ॥३॥ ब्रह्मचर्य व्रतधारी, सिद्ध पुरुष साचा; गुरु सिद्धपुरुष साचा; कयतां आप प्रताप, विरामती वाचा;
जयदेव जयगुरु देव. ॥४॥ पावन परम सदाय,प्रभुनां ध्यान धर्या,गुरु प्रभुनां ध्यानधाँ; शुद्ध अहिंसा ज्ञाने, कल्मष दूर कों;
जयदेव जयगुरु देव. ॥५॥ वचने सिद्धि अपार,जन सघला जाणे, गुरु जन सघलाजाणे; शेठ श्रीमंत महीप, मर्यादा माने;
'' जयदेव जयगुरु देवा. ॥६॥ भाव आरती लइने, प्रेमदीपक करीये, गुरु प्रेमदीपक करीये, सद्गुरुपद सेवीने, भवसागर तरीये;
जयदेव जयगुरु देव ॥७॥
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जैन सहित जैनेतर, सहु वंदन करता, गुरु सहु वंदन करता; प्रेमज्ञानना बलथी; समीपे संचरता;
जयदेव जयगुरु देव. ॥८॥ बुद्धिसागर सद्गुरुनी; जे आरति गाशे; गुरु जे आरति गाशे; अजितसागर कहे एनां; सहु संकट जाशे;
. जयदेव जयगुरु देव ॥९॥
मंगलदोवो. दीवोरे दीवो अति मंगल कारी, अनुभव दीपक अति उपकारी: दीवो० ॥१॥ पहेलोरे दीवो गुरु ज्ञान- ज्योती, दर्शन करी मन वृत्तिओ म्होती: दीवो० ॥२॥ बीजारे दीवो शुभ आचार पालो, दीलनी अविद्या उपाधिने टालोः दीवो० ॥३ त्रीजोरे दीवो प्रभुध्यान समाधि, साधन करी हरिये अंतर उपाधिः दीवो० ॥४॥ चोथोरे दीवो शुद्ध चारित्र जाणो, . आत्मा परमात्मानुं बार| मानो; दीवो० ॥५॥ अलख निरंजन आत्मानां दर्शन, पावन करीये अंतर तन मन: दीवो० ॥६॥ मूर्य शशी दीवा प्रभुजीना शोभे, देखी देखी सूरि मुनि मन लोभे; दीयो० ॥७॥
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दीवो० ॥८॥
देव-दनुज-मुनि सिद्ध चोराशी, परिहरे ज्ञानदीवाथी उदासी; अखंड अमर दीवो प्रभुनो प्यारो, ध्यान धिरजथी उरमां धारो; अजित सागर गुरु ज्ञाननो दीवो, प्रगट करी जगमां घणुं जीवा;
दीवो० ॥९॥
दीवो० ॥१०॥
फलम. पूजाभिरष्ठधा नित्यं, योनरः पूजयिष्यति । गुरु पादाम्बुजद्वन्दू, तं शिवश्रीर्वरिष्यति ॥१॥
दुहा कलश भर्यों के भावनो, पाणी निर्मल प्रेम. पूजन सद्गुरु देवजें, आपे कुशल खेम; अंतरमा उभराय छे, सूरिवर केरो स्नेह. करुणा केरा आपता, मांघा मीठा मेह;
॥२॥
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स्तवनसंग्रह.
अलबेलीरे अंबेमात-ए राग. जय जय जयगुरु महाराज, अति करुणा कीधी. म्हने परमातनी आज, अति भक्ति दीधी; एटेक. • आसंसार तणां सहु दुःखनो, गणतां नावे पारजो. ए दुःख दूर कर्यो सहु म्हारां, प्रगटयु भाग्य अपार;
__ अति० ॥१॥ मृगतृष्णानुं जेवू पाणी, नावे कदीये हाथजो. आसंसार विषे सुख एवं, सार गुरुनो साथ; अति० ॥२॥ अनंत कालथकी अथडातो, पाम्यो पीडा अनंतजो. ज्ञान ज्योति प्रगटाव्यु पोते, आव्यो दुःखनो अंत;
अति० ॥३॥ कल्पतरुनुं जेवू शरणं, एवी आप सहायजो. अनंत भवनी पीडा गुरुनी, भाव भक्तिथी जाय;
अतिः ॥४॥ नर भव फरी फरी नावे हाथे, अति उत्तम अवतारजो. सफल को उपदेश आपीने, अतिमान उपकार;
अति ॥५॥
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४०
भावट भागी भवाटवीनी, गुरु गुण केम गणायजो. अनंत सुखनो सागर आत्मा, गुरु ज्ञानेथी जणाय;
__ अति० ॥६॥ परम कृपालु सद्गुरु राजा, बुद्धिसागर सरिराजजो. अजित सागर सद्गुरुने विनवे, सद्गुरु गरीब नवाज;
अति० ॥७॥
॥२॥
आवो आवो यशोदाना कंत-ए राग. आवो आवो तमे गुरुराज, मन्दिरे आवोरे. अमो दास तमारा सदाय, करुणा लावोरे; तमे सद्गुणना भंडार, अंतरजामीरे. थया पूरण कृतार्थ अनेक, शरणुं पामीरे; तमे शोभावी गुजरात, कीर्ति प्रसारीरे. आप चरणमा वार हजार, विनती अमारीरे; तमे शिखव्या समान स्वभाव, शीखवी समतारे; तमे मार्यों मोह महान, भारी ममतारे. तमे रुडा भज्या भगवान, संसार त्यागीरे; तमे सद्गुरु केरा शिष्य, अखंड अनुरागीरे. तमे सहज समाधि साधि, भल पण भरीयारे; प्रत्याहारने प्रणायाम, केरा तो दरीयारे.
॥३॥
॥४॥
॥५॥
॥६॥
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४१
सघलां काप्यारे;
दान, मुमुक्षुने आप्यारे.
तमे क्लेश तणा तो तमे आत्मविद्या के हतो ऊर्द्ध तमाशे प्रदेश' कोइ जन जाणेरे; तमे अनुभव मार्ग प्रवीण, जाणे ते माणेरे. तमे ध्यानी तणा पण ध्यानी, ज्ञानीना ज्ञानीरे; तमे प्रेमी तणा पण प्रेमी दानीना दानीरे. तमे अखंड जगावी अलेख, अवधूत तमे जगायो आतमराय वखाण्या संतेरे. सूरि अजित कहे गुरुदेव, उत्तम आचारीरे; सदा आपतणा गुण गाय, अरजी उच्चारीरे.
पंथेरे;
मूल,
||6||
॥८॥
॥९॥
॥१०॥
11??11
३
अलि साहेली जंगम तीरथ नोवा उभीरेने - ए राग.
गुरुदेव तमो भववनमांही सिद्धो पंथ बतावता. सहु प्राणी तणा, कूडमति हरवाने औषध आपता; ए टेक. तमे संत सदा परउपकारी, तमे सुख परित्याग्यां संसारी. हति प्रभु तणी भक्ति प्यारी; गुरु० ॥ १ ॥ जए जोग विषे निशदिन जाग्या, आतम रस माटे अनुराग्या. वली विश्व भोग मिथ्या लाग्या; गुरु० ||२|| तमे धर्म तणां बहुत्त पाल्यां, तमे आधि उपाधि बधां टाल्यां. तमे शिवपुर के घर भाल्यां;
गुरु० |३||
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तमे अलख निरंजन लक्षधर्यो, फरो मानव केरो सफल कर्यो. तमे पाप समूह समग्र हों;
गुरु० ॥४॥ तमे समजाव्यां नरने नारी, श्रद्धा करी आत्म विषे सारी. करी नौका भवजल तरनारी:
गुरु० ॥५॥ तमे जगत भाव जाण्या खोटा, जाण्यु जगत जलना परपोटा. तमे जाण्या मनमोहन मोटा;
गुरु० ॥६॥ गुरु एक जीभे केटलं कहीये, गुण संभारी मनमां रहीये. गुरु स्मरण वडे राजी थई
गुरु० ॥७॥ करुणा अम उपर सदा राखो, क्लेश कंकासने कापी नाखो. गुरु भक्ति विषे जाय भव आखो,
गुरु० ॥८॥ मूरि अजितनी विनती ध्यान धरो, शुभ आशिष केरुं दानकरो. बुद्धिसागरजी भव रोग हरो;
गुरु० ॥९॥
॥१॥
॥२॥
जो कोइ बुद्धिसागर सूरिने आराधशेरे लोल. तेना दीलमांही भक्ति ज्ञान वाधशेरे लोल; तेनी नेक तथा टेक प्रभुमां थशेरे लोल, भूख दुःखने-जंजाल अलगां जशेरे लोल. धर्यु ध्यान भगवान केरुं भावथीरे लोल; लाव्या लक्षमा अलक्ष रुडा ल्हावथीरे लोल, दशे दिशमां हमेश जामी नामनारे लोल. जेणे पूर्ण करी प्रेमी केरी कामनारे लोल:
॥३॥
॥४॥
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४३
॥५॥
॥६॥
॥७॥
दाम-धाम-गाम-सर्व जेणे त्यागीयारे लोल, जेने वंदवाने नरनारी लागीयारे लोल. जेनी प्रीति तणी रीति घणी आकरीरे लोल; जेणे अलबेलानी भक्ति भली आदरीरे लोल, जेणे जैनधर्म केरी करी गर्जनारे लोल. मिथ्या वादीनी करावी बधे तर्जनारे लोल; जेनी सिद्ध दशा केरी व्यापी मान्यतारे लोल, जेने सज्जनो मुसिद्ध साचा जाणतारे लोल. देश कालना प्रमाणे ज्ञान ध्यानमारे लोल; कर्यों धर्मनो प्रचार-महा मानमारे लोल, मूरि अजितनी विनती छे एटलीरे लोल. जीव्हा एकने स्तुति कराय केटलीरे लोल;
॥८॥
॥९॥
॥१०॥
आवजो आवजो आवजोरे, व्हेनी–ए राग. लावजो लावजा लावजोरे, गुरु प्रार्थनाने लक्षमांही लावजो. प्रेमरूपी पुष्प प्रगटावजोरे, गुरु प्रार्थनाने० एटेक०
अज्ञान अंतरमांही अति उभराय छे. एने ज्ञान दीपके हठावजोरे;
गुरु० ॥१॥ शोकरूपी अनि केरी झाल झलकाय छे, स्नेह तणा पाणीयी शमावजोरे, गुरु० ॥२॥
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४४
मनडुं सदाय भूडुं भमतुं भमे छे; भव्य गुरु हवे ना भमावजोरे, जैन धर्मरूपी रुडा बागमांही आसमे, वैराग्यनां बीज आवी वावजोरे; अनाचार अंतरना दूर करी नाखजा, आचारनी ध्वजाओ उठावजोरे. हिंसा वधे छे विश्वमांही आ समा विषे; अहिंसाना आनंद उडावजोरे. असंख्य प्रदेशी तमे आतमा अनूपछो, आत्मज्ञान नीरे न्हवरावजोरे: अजितसागर केरी विनती स्वीकारजो, शुद्धतानां पाणी पीवरावजोरे.
६
गजल.
गुरु० ||३||
गुरु० ||४||
गुरु० ॥५॥
गुरु० ॥६॥
गुरु० ||७||
गुरु० ॥८॥
ॐ ही श्री गुरुदेव छो, पावन परम परमेश्वरा,
हुं आपनुं समरण करूं, - थाजो सदाये सुखकरा; - ॐ० ॥ १ ॥ माता तमो पिता तमो भ्राता तमो बीजं नही, म्हारी तथा जाती तमो, वीजुं कथं इच्छं नही. - ॐ० ॥२॥ आकाशमां पातालमां, गुरु आप सम कंइये नथी,
आत्मा परात्म बनाववा, बीजुं सुखद साधन नथीः- ॐ० ॥ ३ ॥
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माथा तणा तो मुकुट छो, हैया तणा शुभ हार छो; कामादि सैन्य विदार बा, शूरा तमो सरदार छो.-ॐ०॥४॥ पृथ्वी सलिल अग्नि पवन, आकाशमा त्हारी गतिः जन अधमने उद्धारवा, शक्ति इतर सारी नथी;-ॐ॥२॥ प्रेमस्वरूप तमो दिसो, वळी नेम स्वरूप तथा तमो; सौन्दर्यरूप तथा तमो, पूजक तमारां सहु अमो,-ॐ०॥६!! जलना तरंगो जाणुं के, गुणगान सुन्दर गाय छे; गुरुगुणतणा ए तानमां, मुज आत्म निर्वळ थाय छे-ॐ॥७॥ जगनां सुखो मागु नही, जगनां दुःखो त्यागुं नहीः त्याग्या अने माग्या तणी इच्छा हृदय राखुं नही,-ॐ॥८॥ केवल हृदयमां वांच्छना, परिपूर्ण गुरुकरुणा तणीः उद्धार करवो अजितनो, ए गर्जना सद्गुरुभणी.-ॐ॥१॥
ॐश्रीसद्गुरुविरह. ओधवजी संदेशो कहेजो श्यामने-ए राग. सद्गुरुनां चरण दर्शन ते फरीथी क्यां मले ? जेणे कही हती आत्म प्रदेशी वातजो, व्हाणुने व्हातारे गुरुजी सांभरे, जेणे जप्या जप जिनवरना दिनरातजो; सद्गुरु. ॥१॥
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४६
सोsहं शब्द सुणाव्या म्हारा कानमां, जडचेतननी समजावी शुभशानजो; रुपैया आप्याथी वस्तु ना - मले, ते प्रभु केरुं गुरु दीधुं दानजो. ज्ञानभानु प्रगटाव्यो दील आकाशमां, निर्मल भावे कर्यो तिमिरनो नाशजो; समीप वस्तुने कीधी दूर प्रदेशमां, दूर वस्तुने दर्शावी छे पासजो. सद्गुरुना वचने म्हें छोडी जातडी, सद्गुरु वचने त्याग करी म्हें नातजो: गुरुवचनामृत पीनेत्याग्या तातने, गुरुवचनोथी मानी मात अमातजो. भ्रमणा मम भागीने लगनी लागी छे, गुरु वचनोमां तन मन धन कुरबानजो; आत्मानी परमातमशुं थइ प्रीतडी.
सद्गुरु. ॥२॥
सद्गुरु, ||३||
सद्गुरु. ॥४॥
अलख निरंजन प्रभुनुं लाग्यं ध्यानजो. सद्गुरु ॥५॥ असंख्य प्रदेशी चिद्घन प्रेमे पामीयो, वर्षी रह्या कां शांतितणा वरसादजो; स्मृति आवी छे विस्मृतिकेरा नाथनी, अयाद देवनी गुरुए दीधी यादजो. शा शा गुण गणावुं श्री गुरुदेवना, अनंत दिवस गणतां पण नावे पारजो;
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सद्गुरु ||६||
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४७
विषय शशीनां किरणो मंद पडी गयां, अघ उलूकना विरम्या शब्द अपारजो. सद्गुरु. ॥७॥ अजित सागरना दिलमां वस्या गुरुदेवश्री, सफल थयो छे मुज मानव अवतारजो, गुरु विण मुक्ति मले नही कदीए कोइने, गुरु विण क्यांथी आवे विमल विचारजो.सद्गुरु.॥८॥
श्री गुरु विरहे सातवार.
सखी पडवे ते पूरण प्रोत-ए राग. सखी ! आदित्य उग्यो आकाशे, व्हाणुं व्हातारे; म्हारां तन मन व्याकुल थाय, गुरु गुण गातारे. ॥१॥ सखी ! सोमेते आवी शान, वात विचारीरे, म्हारा घटमां सद्गुरु देव, अति उपकारीरे. ॥२॥ सखी ! आव्यो मंगलवार, मंगल करतोरे; म्हने सद्गुरु आव्या याद, आंसु भरतोरे. ॥३॥ सखी ! बुध वासरीये शुद्ध, कोणवतारे; लीधो गुरुए स्वर्गनो पंथ, दीलभरी आवेरे. ॥४॥ सखी ! गुरुए दर्शन दीव्य, गुरुनां करतारे; लक्षचोराशीनी जेह, हरकत हरतारे- ॥५॥
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४८
सखी! शुक्रतणो दिन आज, सौने सारोरे; मुज गुरु बिरहीने खास, लाग्यो खारोरे. सखी ! शनिवासर छे भाव, करिया करवारे; पण गुरुविण मन अकलाय, भवजल तरवारे; म्हारी बातोना विश्राम, सद्गुरु देवारे. तजि चाल्या अमने स्वर्ग, करीए कोनी सेवारे; ॥८॥
गुरु ! अवगुण अम अगणित, करुणा करजोरे; मूरि अजित सागरना शिर, शुभकर धरजोरे. सखी ! सातवार जे कोइ, मेमे गाशेरे; गुरुकरुणाथी ते शिष्य, पावन थाशेरे.
॥६॥
11911
॥९॥
112011
श्री गुरुगुणगान.
क्षमा रमानाथने पूरण प्यारी - ए राग. गुरुकेरा सद्गुण केम गवाशे, केवल स्मरणथी सुख थाशे. टेक. धर्म अधर अधर्ममां धर्म, शी रीते जुक्ति जणाशे. त्याज्य अत्याज्यनी सुखभरी समजण, सद्गुरुथी समजाशे. गुरु० ॥१॥ सद्गुरु बुद्धि सागरनी सेवाथी, पापना ताप पलाशे; मोक्षना पंथे मोहादिक कादव, सद्गुरु विना कलाशे. गुरु०॥२॥
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४९
अतिवकठिन ए कादवमांथी, निश्चयथी निकलाशे पण ए निश्चय गुरुविण क्यांथी ! पिंडमां आवशे पासे. गुरु ० ॥ ३ ॥ वृक्ष समग्रनी करीए कलम अने, सिंधुनी शाही सोहासे; पृथ्वीतणो कागल रुst करतां, शारद हाथ लखाशे. गुरु ० ॥ ४ ॥ आवशे पार समग्रनो तोपण, गुरुगुण केम गणाशे: कारण आत्मानां सौख्य अनंतां, केमज अंत पमाशे. गुरु ० ॥५॥ सद्गुरु माथे मल्या बुद्धिसागर, हुं पण आवेलो आशे; वस्तु अनुपमनुं रूप जणाव्युं, हैडामां देवने होंशे. गुरु० ॥ ६ ॥ तत्त्व अतत्त्वनां लक्षण आष्यां, वृत्ति न क्रोध कंकासे; अजितसागर पाम्यो इष्ट अनुभव, गुरुभक्ति केम भूलाशे. गुरु०॥७॥
१०
श्रीमद् गुरुविरह.
भेखरे उतारो राजा भरथरी - ए राग.
सद्गुरु संत महातमा, गया धर्मने धामजी, विरहवडे व्याकुल बनुं, रटतां गुरुजीनुं नामंजी. सद्गुरु०टेक. अमने उगार्या असत्यथी, आपी सत्योपदेशजी; पापप्रपंच तजावीया, सुन्दर साधुने वेषजी. सद्गुरु० ॥ १ ॥ सूनुं लागे सहुतम विना, सूनो लागे संसारजी; विरह अनिल सतावतो, सुकवे काया आ वारजी. सद्गुरु ० ॥२॥
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ध्यान करूं घडी आपy, आवे मूर्ति प्रत्यक्षजी; प्रेमातुर आवं वंदवा, पण उघडे ज्यां चक्षजी.सद्गुरु०॥३॥ एहसमे दर्शन आपनां, यदा नव अवलोकायजी: व्यापे विरहतणी वेदना, काया थर थर थायजी.सद्गुरु०॥४॥ समदृष्टि तमे साचवी, सौमां सरखोज प्रेमजी; सौ पर आशिष ते रीते, राखता सरखीज रहेमजी.सद्॥५॥ जूनो लोपायलो जैननो, कीधो योग उद्धारजी; निर्मल मति गति आपनी, निर्मल सर्व प्रकारजी. ॥६॥ आपनी जग्या खाली पडी, कोना थकी पूरायजी; कामदुघा क्या अपरशु, केम उपमा अपायजी, ॥७॥ लभ्य कीधुरे अलभ्यने, कीधुं अदृष्ट दृष्टजी; सभ्य कीधुंरे असभ्यने, कीधुं सृष्ट असृष्टजी. ॥८॥ भेद कीधारे अभदना, कीधा अभेदना भेदजी; ममजावी शान सोह्यामणी, कापी मोहनी केदजी. ॥९॥ शिप्यनो संघ संभारतो, गुरुज्ञान विशालजी; अजित नमे आप पायमां, गुरुदेव दयालजी. ॥१०॥
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. . श्री गुरुमहिमा.
___राग उपरनोबुद्धिसागर गुरुदेवजी, जपीये आपनो जापजी; मनडाना मोह शमावजो, टाली तनडाना तापजी;
बुद्धि-टेक० धर्म पाल्यो तमे धैर्यथी, कीयां धर्मनां कामजी, अन्यने धर्म पलावीयो, गया धर्मना धामजी. बुद्धि० ॥१॥ योगप्रदेशधी आवीया, पाल्यो योग आचारजी; सिद्धस्वरूपी सदा तमो, दीव्यज्ञान दातारजी. बुद्धि० ॥२॥ दर्शन फरी हवे क्यां मले ? क्यारे देशो सत्संगजी; क्यारे थाशे भव्यदर्शने, उरमांही उमंगजी. बुद्धि० ॥३॥ मनि मधुर मनमोहिनी, पंखी प्रगटनो प्रेमजी: विरही शिष्यो गुरुदेवना, करिये स्थिर मन केमजी ?
बुद्धि० ॥४॥ पारम फेरा शुद्ध स्पर्शथी, लोह कुंदन थायजी. आत्मापरात्म बने नहीं, जीव पणुं नव जायजी%3B
बुद्धि० ॥५॥ आत्मपरात्म बने तदा, मले सद्गुरु देवजी. उत्तम सत्संम आपतां; करतां सत्संग सेवजी. बुद्धि० ॥६॥
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विरह प्रखर गुरु राजनो, तन मन व्याकुल थायजी. आंख्य थकी अश्रुभो वहे, नव शांति सोहायजी;
बुद्धि० ॥७॥ अमने गुरु ? ना विसारशो, गांडां घेलां पण दासजी. अम अवयुण ना विलोकशो, अमने आपनी आशजी%3;
बुद्धि० ॥८॥ अनंत प्रदेशी आतमा, एना अनुभवनारजी. अजितने आशिष आपशो, अमने आप आधारजी;
बुद्धि० ॥९॥
१२
श्री गुरुअनुभव. क्षमा रमानाथने पूरण प्यारी-ए राग. गुरुए अमने अमृत पान कराव्यां,
बीज कल्पतरु तणां वाव्यां; एबीज उख्यां फुल्यां तथा फाल्यां,
उत्तम फल मीठां आव्यां: दीव्य देवने दीव्य प्रदेशे,
ध्यानना योगे धराव्यां. गुरु० ॥१॥ अनुभव सागर छोले चढयो अने,
फल तजी कार्य कराव्यां;
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गुरु० ॥२॥
गुरु० ॥३॥
गुरु० ॥४॥
पीपल उपर बेठेलां पंखी,
अगम प्रदेशे उडाव्यां. मति गति पहोचे नही तेवे पर्वत, ___अनुभव वारि वहाव्यां; गगन सिंहासने आसन शोभे,
____ त्यां अम स्थान ठराव्यां. ज्ञानगंगा जले स्नान कराव्यांने,
स्नेहनां पुष्प सुंघाव्यां; प्रेमनी पेटी उघाडी कृपाघन,
करुणानां पट पहेराव्यां. बालक पर जेवां लालन पालन,
ए लाड अमने लडाव्यां: काम क्रोध केरा ककडा करी अने,
दोषनां मूल दबाव्यां. कठिन कठोरता कापी दीधी अने,
साधन शुद्ध शिखाव्यां; अलख वस्तु म्हारा दीलमां लखावी,
लक्षण खलनां खपाव्यां. बुद्धिसागर गुरुमुज शिर शोभ्या,
शांतिनां क्षेत्र सोहाव्यां; अजितसागर कहे सद्गुरु चरणे,
भावने भक्ति भणाव्यां.
गुरु०॥५॥
गुरु० ॥६॥
गुरु०॥७॥
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श्री सद्गुरुचरणपुष्पांजलि,
गरुडे चढी आवज्यो-ए राग. बुद्धिसागर सद्गुरु जाउं वारी:
जेणे मोक्षनी वात विचारी. बुद्धि. ए टेक. दया सर्व जनोपर लाव्या, एकसो आठ ग्रन्थ बनाव्या, . स्नेह साथे शिष्योए छपाव्या. बुद्धि० ॥१॥ जैनशास्त्रना उंडा अभ्यासी, प्रेमज्ञानना पूर्ण पिपासी. ... पृथ्वी उपर कीर्ति प्रकाशी. बुद्धि० ॥२॥ शुभ साहित्य केरारे शोखी, उंची दृष्टि सदैव अनोखी:. __ राग सर्व दीधा हता रोकी. बुद्धि० ॥३॥ आश्रम ठामोठाम स्थपाव्या, हाल जरुर वाला ते जणाया:
जैनवाल पवित्र भणाव्या. बुद्धि० ॥४॥ वली शास्त्रना भंडार स्थाप्या, उपदेश अनेकोने आप्या: कामभाव अंतरमाथी काप्या.
बुद्धि० ॥५॥ कल्पवृक्ष छे परउपकारी, जेनी छाया छे शीतल सारी: एवा उपकारी आनंद धारी.
बुद्धि० ॥६॥ मान पामता ज्या ज्यां ते जाता, पुण्यवंत देखी राजी थाता: __जेना गुण देशोदेश गवाता.
बुद्धि० ॥७॥ अमने आशरो एक तमारो, तारो हाथ झालीने अमारो: __ बीजे सुखडांनो जाण्यो उधारो. बुद्धि० ॥८॥ शिष्य अजितसागर पाय लागे, माधुं ज्ञानदान मागे; गुरुचरणे सदा अनुरागे.
बुद्धि० ॥९॥
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श्री सद्गुरुस्तवन.
राग उपरनोशरण बुद्धिसागर गुरुनु सारं; ___ जेनुं ज्ञान पीयूष लागे प्यारं. शरण० ए टेक. रुडी मुक्तिनी जुक्ति बतावे, ज्ञानदीप सहज प्रगटावे: __दीलडा केरा दोष दबावे.
शरण० ॥२॥ शरणे आव्यानी लज्जा राखे, अज्ञानने नीवारी नांखे, ___ भव्य वाणी वदनथकी भाखे. शरण ॥२ रुडी सद्गुरु कल्पनी छाया, राखे शिष्य उपर मांधी माया; __ शुद्धव्रतधारी श्री गुरुराया. शरण० ॥३॥ धर्मध्यान निरंतर धार्यों, कैक नर अने नारी उगार्यो:
विश्वसरितामां डूबतां तार्यो. शरण ॥४॥ ब्राह्मण क्षत्रियो जेने वखाणे, जोगी जंगम पण जेने जाणे: ___ स्त्रीस्तीलोकोय प्रेमे प्रमाणे. शरण० ॥५॥ हिंसावाला अहिंसक कीधा, दारु पीताने उपदेश दीधा;
आप ज्ञाने नक्की नथी पीता. शरण० ॥६॥ वीडी चलमो पण कैनी तजावी, गुजरातने ज्ञाने गजावी;
जैन कोममां आणावर्तावी. शरण० ॥७॥ आप सरखा हवे ओछा थाशे, गुण घडीभरना संगी गाशे; ___पाप गुरुविना कम कपाशे ? शरण ॥८॥
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५६
गुरुविरह तणा भाला वागे, गुरुपदमां अजितअनुरागे; प्रेमे वली वलीने पाय लागे.
१५
शरण० ||९||
श्रीमद् गुरुदेवस्तुति.
रघुपति राम हृदयमां रहेजोरे - ए राग.
रुडा गुरुदेव ? हृदयमांही रहेजोरे, दान ज्ञान अमृत तणां देजो: रुडा० ए टेक० तमो ज्ञानसागर गुरूदेवारे, सारी शीखवजो गुरु ? सेवारे; अमने भक्ति तणी देजो हेवा.
रुडा० ||१||
रुडी मूर्ति मनमांही भावेरे, विरह अश्रुने नयनमां लावेरे; दीव्य वाणीतों तन तलसावे.
रुडा० ||२||
योग अभ्यासना बीजा इन्दु.
शांतिकेरा तमो शुभ सिन्धुरे, एक जिनवरमां लक्ष बिन्दुरे; रुडा० ॥३॥ आपे जन्म सफल करो लीधोरे, प्रेम प्यालो पूरण तमे पीधोरे; उपदेश अनूपम दीधो.
रुडा० ||४||
जेजे देशमां आप पधार्यारे, भवसागरथी जन तार्यारे; अज्ञान तिमिरथी उद्धार्या.
रुडा० ||५||
मोटा महीपति राखता मानारे, नाम सांभली जन आवे झाझारे
सर्व शास्त्र ज्ञाता गुरुराजा.
रुडा० ||६||
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विद्यापुर केरी भूमि छे सारीरे, जन्मभूमि ए भव्य तमारीरे;
त्यांनां तारों तमे नरनारी. रुडा० ॥७॥ साधुरूप साचवीयु छ साचुरे, जग सुखने जाण्यु हतुं काचुरे;
भाव भक्ति तमारी हुँ याचं. रुडा० ॥६॥ अजितसागरना मनमांही आवोरे, बुद्धिसागरजी दया लावोरे; कृपा वारि विमल वरसावो.
रुडा० ॥९॥
श्रीमद् सद्गुरुस्तुति.
राग उपरनो. बुद्धिसागर सद्गुरुनी बलीहारीरे,
जेने भक्ति प्रभु केरी प्यारी. बुद्धि० ए टेक. जैनधर्म तणी टेक धारीरे, यावत् जीवनना ब्रह्मचारीरे; सहु जीवो तणा उपकारी.
बुद्धि० ॥१॥ जेणे काम कंकासने काप्यारे, अवळा मार्ग सदैव उत्थाप्यारे;
दीव्य देशना संदेश आप्या. बुद्धि० ॥२॥ मुनिभावनी साचवी दीक्षारे, आपी शिष्योने शास्त्रनी शिक्षारे; ___ जेने भाव भजन केरी भिक्षा. बुद्धि० ॥३॥ शास्त्री लोकोतो स्नेहे संभारेरे, पंडित लोको तो प्रेमे पुकारेरे; ___ ध्यानी लोको सदा ध्यान धारे. बुद्धि० ॥४॥ प्रेमी जनने तो लागता प्रेमीरे, नेमी लोकोने लागता नेमीरे; ____ मति शास्त्र पारंगत जेनी. बुद्धिः ॥१॥
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५८ भजनीलोकोतोभजनीकजाणेरे,योग वाला तो योगी पीछाणेरे;
निर्मल लोक तो निर्मानी माने. बुद्धि० ॥६॥ जेनी राग रहित रुडी दृष्टिर, शास्त्र मांही विशारद सृष्टिरे; जेने वैराग्य वारिनी वृष्टि.
बुद्धि० ॥७॥ देह त्यागी गया बीजा देशेरे, अमने ज्ञान अमृत कोण देशेर;
हित शिक्षाओ गुरु ! कोण कहेशे. बुद्धिः ॥८॥ मोहराजाने मारी नाख्योरे, राग एक आत्मामांही राख्योरे;
गुरुभाव अजित शिष्ये भाख्यो. बुद्धि० ॥९॥
श्री सद्गुरुने प्रेमांजलि.
हरिगीत-गझल सोहिनी. गुजरातमां जन्मी अने, गुजरातने पावन करी, भयकापती भगवंतनी, अति दीव्यभक्ति आदरी; सुज्ञान दीव्य प्रदेशनु, निर्मल तमारामां हतुं, ने आपना पथ लइ जवानु, ध्यान पण सुन्दर हतुं. ॥१॥ जे जे तम्हारी पासमां, भावे भर्या जन आवता, ते ते जनोने योग्य विधि, शुभ ज्ञान मुखकर आपता; मूर्ति मनोहर आपनी, अम नयन गोचर आवती, गुरुदेवकेरा भावथी, नयनो विषे जल लावती. ॥२॥ जगमांही जन्म्यो एज, जेणे विश्वनुं कंइ हित कर्यु, उंची कदावर मूर्ति ने, नयनो विमल प्रेमे भों;
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५९
मृदुहास्य संत प्रसंगमां, वचनो सुधाज्ञाने भाँ. ॥३॥ ज्यारे अने त्यारे तमारा. निकटमां ग्रन्थो पड्या, रहेता हता शुभशास्त्रना, के काव्यना के ज्ञानना; घडी एक पुस्तक वाचता तो, ते विषे तल्लीन थता, घडी एक भजन सुणी अने, आत्माविषे आल्हादता. ॥४॥ घडी एक ध्यान धरी प्रभुनु, बाह्यमान विसारता. घडी एक दीव्य निरीक्षणे, कंइ नवीन ग्रन्थ विचारता; घडी एक वचनामृत दइ, प्रभुज्ञान अत्र प्रसारता, ने विश्व- हित केम बने, ते दृष्टि मनमा धारता. ॥ मुन्दर तमारा देहमां, सुन्दर वसी शमता हती, ने मोक्षकेरा मार्गमां, गुरु आपने ममता हती; आ सर्व विश्व भमावता, मनडातणी शमता हती, आचार तत्त्व स्वरूपमां गुरु ? सौम्य निर्मलता हती. ॥६॥ सहु भूतपर अनपायिनी प्रभु ? आप मांही दया हती, ने तीव्र तपना योगथी, कमनीय तव काया हती; शिष्यो उपर शीतल सुभग, गुरु ? आपनी छाया हती, ममता रहित मानव उपर, मधुरी महद् माया हती. ॥७॥ छो आप ऊर्ध्व प्रदेशमा, करुणानी दृष्टि राखजो, आधि अने व्याधि बधां, संकष्ट सद् गुरु ? कापजो; छे ध्वांत अम दिलडां विषे, त्यां ज्ञानरूपे व्यापजो, वैराग्यरूपी कल्पतरुनु, बीन स्थिर मन स्थापनो. ॥८॥
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६०
सोरठी.
सद्गुरुनी थइ याद, मन तन व्याकुल थाय छे; निर्मल आप प्रताप, स्वीकारो अम अंजलि.
१८
श्री गुरुनी स्तुति.
सहेरनो सूबो क्यारे आबशेरे-ए राग. जन्मभूमि धन्य आपनीरे; पवित्र विजापुर गाम मूरिराज !
धन्य कर्यो अवतारनेरे० टेक०
मोक्षना दाता महातमारे; बुद्धिसागर रुडुं नाम. मूरिराज ! धन्य कर्यो अवतारनेरे० मूर्ति मधुरी मनमोहिनीरे: आवे अहोनिश याद. मूरिराज ! धन्य कर्यो अवतारनेरे ०
अजपा जाप जप्यातमेरे; कबजे कर्या जगतात. मूरिराज ! धन्य कर्यो अवतारनेरे ०
उत्तम आव्यां वधामणांरे; करता हता ज्यां विहार. मूरिराज !
॥९॥
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॥२॥
॥३॥
धन्य कर्यो अवतारनेरे० ||४||
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जबर जादू हतुं आपमारे; आपता बोध अपार. सूरिरान !
धन्य कर्यों अवतारनेरे० ॥५॥ कोमलता हती कान्तिमारे; कोमल वचन प्रकार. सरिराज !
धन्य को अवतारनेरे० ॥६॥ परम पावन पद पामीयारे; एमां न संशय रंच. मूरिराज;
धन्य को अवतारनेरे० ॥७॥ साचा मान्या जगदीशनेरे, व्यर्थप्रमाण्यो प्रपंच. मूरिराज !
धन्य को अवतारनेरे० ॥८॥ अमने म्होटो हतो आशरोरे; तरवा संसारनां नीर. सूरिराज !
धन्य कर्यो अवतारनेरे. ॥९॥ उत्तर गुर्जर देशमारे, साबर सरितानो तीर. सूरिराज !
धन्य कर्यो अवतारनेरे० ॥१०॥ कूडिलो कलियुग आवीयोरे; धारणा करीए न धीर. सूरिराज !
धन्य को अवतारनेरे० ॥११॥
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अजितसागर मूरि उज्चररे; गुरुगम रम्य रुचिर. मूरिराज !
धन्य को अवतारनेरे० ॥१२॥
टेक.
॥2॥
श्री गुरुगुणगान.
राउपरनो. आंखडली अम आंसु भरीरे,
विरह कह्यो नव जाय, गुरुदेव !
क्यारे दर्शन हवे आपशोरे ! काया पावन कारी आपनीरे,
संभारी दील डोलाय, गुरुदेव !
क्यारे दर्शन हवे आपशोरे. : वचन अमृत याद आवतारे,
पावन कर्म सदाय, गुरुदेव !
क्यारे दर्शन हवे आपशोरे. ! जननी ! भगत जन्म आपजेरे;
कां दाता कां शूर गुरुदेव, !
क्यारे दर्शन हवे आपशोरे.! नहींनर रहेजे वांझणीरे;
रखे गुमावती नूर, गुरुदेव ! __ क्यारे दर्शन हवे आपशोरे.
॥रा
॥४॥
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६३
॥५॥
॥७॥
मफल करीए अवतारनेरे; __ मफल कयों अवतार गुरुदेव !
क्यारे दर्शन हवे आपशोरे. मफल करी कुख मातनीरे;
मफल कर्यो संसार गुरुदेव, !
क्यारे दर्शन हवे आपशोरे. योगनी युक्ति जाणी हमेरे;
तेम समाधिनो योग, गुरुदेव :
क्यारे दर्शन हवे आपशोरे. आत्मस्वरूप हमे ओलख्युर;
योग गण्या अवयोग, गुरुदेव !
क्यारे दर्शन हवे आपशोरे. दर करी जग वांच्छनारः
दर कर्या हता दोष, गुरुदेव :
क्यारे दर्शन हवे आपशोरे. परवरिया प्रेम पंथमार;
जोष जोया निर्दोष, गुरुदेव !
क्यारे दर्शन हवे आपशोरे. अजिनसागर मूरि विनवेरे;
बुद्धिसागर मूरिराय, गुरुदेव ! क्यारे दर्शन हवे आपशोरे.
॥८॥
॥१०॥
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रहेम नजर सदा राखजोरे;
सफल जन्म अम थाय, गुरुदेव ! क्यारे दर्शन हवे आपशोरे.
॥१२॥
गुरु विरह. अलबेलीरे अंबेमात जोवाने जइए-ए राग. सखी ! आव्यो मास आषाढ, विरही गुरुदेवे कर्याः सखी ! उरमा अति उच्चाट, विरही गुरुदेवे कर्या. ए टेक. घन गरजे चपला बहु चमके, थाय अंधारुं घोरजो; गुरुविरही मुज चित्तहुं चमके, करतुं शोर बकोर. वि० ॥१॥ मृदु ठंडा वावलीआ व्हाता, खेडुत अनि हरखायजो; पण तन पर ते नथो स्हेवाता, शरीर अतिवसुकायावरहो०२॥ पृथ्वी उपर पाणी बहु पडतां, नदीओमां वहीजायजो; सद्गुरु विरही मुज मन पाणी, हर्षरहित वहाय. विरही०॥३॥ नथी घरमां गमतुं आ दिवसे, सूनो थयो संसारजो; अतिदुर्लभ गुरुजननी संगत, देती विमल विचार.विरही०॥४॥ नव पल्लववेल्ली थइ रही छे, फूली रह्यां छे फूलजो; पण मुज मन वल्ली मुकाणी, उपजावे अतिशूल. विरही०॥५॥ अन्य जन्ममां आवी मले छे, मात जात ने तातजो; सद्गुरु संगत मलवी कठीन छे, दायक प्रेमप्रभात.विरही०॥६॥
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काम क्रोध कंकासने कापे, टाले भवना रोगजो: ज्ञान भक्ति वैराग्यने आपे, संहारे सौ शोक. विरही०॥७॥ पृथ्वी अतिव प्रफुल्ल थइ छे, पामी पाणी प्रसंगजो; सद्गुरु विरहे पण मुज मूक्या, अंतरना उमंग. विरही०॥८॥ नव अंकूर उग्या छे नौतम, उग्यां क्षेत्रे धानजो; पण मम हर्षसमग्र सुकाणा, मनडे त्याग्यूं मान. विरही० ॥९॥ बाह्यअग्निनी ज्वालासारी, थाय विमल फरी अंगजो; अजित अब्धि गुरुविरहनी ज्वाला, फेर न आपे उमंग.वि०॥१०॥
श्री गुरुविरहनो शोक.
राग उपरनो. सखी गुरु ए त्यागी काय, शोक घन छाइ रह्यो; हवे घरमां कम रहेवाय ? शोक अति छाइ रह्यो. ए टेक जन्म धर्यो विजापुर गामे, विद्या पण भण्या त्यांयरे: महिमा प्रगट कर्यों निजपुरमां, तनु पण त्यागी त्यांय.शोक०
ओगणीसो एकाशी संवत् , ज्येष्ठ मास सुखकारजो; कृष्ण पक्षने तिथि त्रीजे, स्वर्ग कयु स्वीकार. शोक ॥२॥ तार अपाणा देशो देशे, लोक उदास अपारजो; जैन हिंदु इस्लाम आदिसहु, समरे वर्ण अढार; शोक० ॥३॥ योगी योगी स्वरूपे जाणे, शास्त्री शास्त्र प्रकारजो;
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कविजन जाणे कविनी कृतिथी,यति पण यति निरधार.शो०॥४॥ रंक उपर ते दया राखता, विद्यार्थी परव्हालजो; भक्त उपर ते भाव राखता, निर्मल ज्ञान विशाल. शो० ॥२॥ देशो देशथी भक्तो आव्या, भारे थइ गइ भीडजो; माय शोक नहीं दिलडां मांही, पूर्ण विरहनी पीड. शो० ॥६॥ राज लोकनी थाय न एवी, करी सामग्री त्यांयजो; अगर-कपूर-चन्दननी हेमां, पधराव्या मूरिराय: शो० ॥७॥ दडदड आँसु बहे सौ जननां, वचने वधु न जायजो; धन्य जीवन आ पर उपकारी, फरी क्यां दर्शन थाय. शो०॥८॥ क्रूर कठिन आ काल समयनी, नथी उचराती वातजो; नमता शेठ श्रीमंत जे चरणे, ए तनु आज वलाय. शो० ॥१॥ विश्व आत्मा जाण्यो जेणे, जाणी जग निज जातजो: अजित सागर मूरि अर्ज उच्चार, धन्य धन्य मातने तात.
शो० ॥१०॥
गुरुप्रार्थना.
ललित-छद. गुरु दयालनी वातशी कहुं ! विरह भावथी रोइने रहुं: अनुभवाब्धिनी ल्हेर आपता,गुरु ! विदारजो सर्व आपदा.॥१॥
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६७
गुरुविना बीजी छे गति नहिं, गुरु विना अहीं छे मति नहिं; गुरुजी ! व्हालथी आप व्यापता, परिहरो हवे सर्व आपदा॥२॥ पतित शिष्यनां कष्ट कापजो, उर विषे रुडां ज्ञान आपजो. मुजशिरे सदा छत्र छाजता, गुरु ! विदारजो सर्व आपदा; ॥३॥ तिमिरता हती अज्ञता तणी, परिहरी हमे हे शिरोमणिः करणी धर्मनी आपता हता, गुरुविदारजो सर्व आपदा ॥४॥ जगत्लोकमां आत्मभावना, इतर कोण ये ! आपना विना: शरण शिष्यनी लाजराखता, गुरुविदारजो सर्व आपदा.॥२॥ इतर तीर्थतो पाप कापशे, पण गुरु विना मोक्ष क्यां थशे; अमतणी तमो माघी छो मता, गुरु विदारजो सर्व आपदा.॥६॥ रझलतो हतो विश्व रानमां, समज आपता धर्मज्ञानमां, मम शिरे रहो ना विसारता,गुरु ! विदारजो सर्व आपदा.॥७॥ नमन आपना पायमां हजो, भ्रमणता हवे ना बीजी थजो; अजित अधिनी एवी प्रार्थना,शरण राखजो हे दयाधना.॥९॥
श्रीसद्गुरुना चरण
ललित छंद. ललित छंदमां विनती करुं, ललित काल छे तोय हूं डरु. गुरु विना हवे केम गोठशे ? गुरु विना हवे ग्लानि शे जशे । ममत माहरी छोडवी दीधी, ममत माहरी धर्ममां कीधी; इतर सौख्यनी प्राप्तिओ थशे, गुरु विना हवे केम गोठशे? २
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धर्मकर्मनी सान आपी छे, कुडमति तणी जाल कापी छे; कुटिल भावने कोण कापशे, गुरु विना हवे केम गोठशे ? ३ विमल भावना ज्ञानना भर्या, धृति मति क्षमा धर्मना धर्या; विशद वृत्तिथी कोण व्यापशे, गुरु विना हवे केम गोठशे ? ४ हृदय आज तो ना कह्यु करे, अडर छे थयुं तोय ते डरे; स्थिर स्वभावने कोण स्थापशे, गुरु विना हवे केम गोठशे १५ भूल थती यदा ज्ञान आपता, कठिण क्लेशनां मूळ कापता; मधुरता विना चित्त जो हशे, गुरु विना मति कोण आपशे.६ गुरुजि ! आपना पायमां पड्यो, परमज्ञानथी ऊर्य हुँ चढ्यो; इतर आपदा कोण दाबशे, गुरु विना हवे केम गोठशे ? ७ तमतणी हती धींगी ढालडी, तमवडे रणे हुं शक्यो लडी; हृदय सैन्यमां शी व्हले थशे ? गुरु विना हवे केम गोठशे ? ८
२४
श्री गुरुभक्ति विना.
छंद भुजंगो. चतुराइ त्हारे भले चित्त चोटी, उमेदो करे छे घणी म्होटी म्होटी; गुरुपादपद्मे न चेतस् थयु जो, थयुं शुं भण्या तो ? थयु | गण्या तो ?
?
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६९
बनी वैदराजा दवाओ बनावे, घणा भोगी रोगी भले घेर आवे; गुरुपादपद्मे न चेतस थयुं जोवकीलात कोर्टे भलेने करे तुं, तिजोरी विषे दाम लावी भरे तुं; गुरुपादपद्मे न चेतस् थयुं जोभले लोक सन्मान आपे सभामां, भले लोक अंजाय त्हारी प्रभामां; गुरुपादपद्मे नचेतस् थयुं जोअडे अभ्र एवां कर्यो हर्म्य म्होटां. डरे लोक सहेजे कदी सामुं जातां ; गुरुपादपद्मे न चेतस् थयुं जो
थयुं शुं ? २
थयुं शुं ? ३
षडंगादि वेदो भलेने भणे छे, वली काव्यभेदो खुशीथी करे छे; गुरुपादपद्मे न चेतस् थयुं जोरुडी अश्व अस्वारी काढी फरे छे, घणो कामी तुं काम मांही रमे छे; गुरुपादपद्मे नचेतस् थयुं जोतजी ज्ञातिने रहें तजी चोटी रोटी, भले जाणी ले तो जगत् आश खोटी; गुरुपादपद्मे न चेतस् थयुं जो
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थयुं शुं ? ४
थयुं शुं ? ५
थयुं शुं ? ६
थयुं शुं ? ७
थयुं शुं ? ८
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७०
मल्या शीर्ष बुद्धयब्धि श्रीयोगिराजा, अजिताब्धिना चित्तमांही विराज्या: कर्यों जन्म कृतकृत्यने मोक्ष दीधो, तथा म्हें व्यथा त्यागी तुज बोध लीधो. थयुं शुं? ९
ॐ-गुरुस्तुति छन्द नाराच अथवा गजल अंग्रेजो वाजानो. कुपात्र ने सुपात्र हेगुरो ? बनावता, सुपात्रना प्रति हमे सहर्ष आवता; गुणज्ञ लोकमां तमारी नामना हती, गुणो अतीव आपना कह्या जता नथी. स्मरी स्मरी ज्वलायमान अंग थाय छे, फरी फरी स्मरी स्मरूं अने स्मराय छे; अमोथी ना बने बन्युज जे तमो थकी, गुणो गुणज्ञ ! आपना कह्या जता नथी. दुःखो विलोकी दीननां दयालुता थती, सुखो विलोकी अन्यनां सुखार्द्रता थती; भविक मंडली थकी सुप्रार्थना थती, गुणानुवाद आपना कह्या जता नथी.
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हसेल सामु देखीने सुहास्य लावता, रुदित सामुं देखीनेज अश्रु लावताः अनेक लोकमां अनेक भावना हती, गुणानुवाद आपना कह्या जता नथी. कठीनता घटे तिहां कठीनता हती, सुदीनता घटे तिहां सुदीनता हती; करुण भावमां करुण भावना थती, गुणानुवाद आपना कह्या जता नथी. मुयोगी लोक आपने सुयोगी मानता, अशोकी लोक आपने अशोक जाणता: मुयोगता अशोकताभरी घणी हती, गुणानुवाद आपना कह्या जता नथी. विसारीये छतां कदापि विस्मरो नहि, अनेक दोष शिष्यना दिले धरो नहिंः महा अगाध भावना कली गइ नहिं, गुणानुवाद आपना कह्या जता नथी. पदाब्जमां अमारु चित्त राखजो सदा, उपाधि आधि व्याधिने विदारजो तथा: अजित सद्गुरुपदे अजित विनती. गुणानुवाद आपना कह्या जता नथी.
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श्री गुरुमहिमा.
छन्द नाराच. अलक्षदेशमां गुरुजी लक्ष राखता, अपक्षपातमां सदैव पक्ष नाखता; अदक्षलोक अर्थ आप दक्षता हती, अमारी आ स्वीकारजो सदा नमस्कृति. अधर्य लोकने गुरुजी धैर्य आपता, अशौर्यलोकने गुरुजी शौर्य आपता; वडीलवर्गमां तमारी नम्रता हती, स्वीकारजो अमारी आ सदा नमस्कृति. तमारी ज्ञानीलोकमाही ज्ञानता हती, तमारी मानि छोकमांही मान्यता हती; जगत् हितार्थ कार्यथी तनू भरी हती, स्वीकारजो गुरु अमारी आ नमस्कृति. मुभक्तलोकमां तमारी भक्तता हती, विरक्तभावथी रुडी विरक्तता हती; अनंत केटिवार छे प्रणाम त्वत्पति, स्वीकारजो सदा अमारी आ नमस्कृति. ४ तमो विषे फकीरीनी अमीरी दर्शती, करुणभावनी तथा मुष्टि वर्षती; सदोज्ज्वलां हतां धृति कृति अने मति: अमारी आ स्वीकारजो सदा नमस्कृति. ५
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७३
प्रगूढभावनी तमे अगूढता करी, प्रमूढलोकनी घणीज मूढता हरी; अगाधभावमा अगाधबुद्धि स्पर्शति, स्वीकारजो सदा अमारी आ नमस्कृति. ६ कवितणा प्रसंगमां कवित्व दर्शतुं, हरेक सौम्य वातमांही है९ हर्षतुं; न जाणुं आपनी गुरो ! कइ हती गति, स्वीकारजो सदा अमारी आ नमस्कृति. ॥७॥ मधुर ज्ञाननां तमे उघाडी वारणां: उद्धार लोकनो कर्यो उतारुं वारणां; अजित शिष्यनी पदाब्जमांही विनति, स्वीकारजो सदा अमारी आ नमस्कृति. ॥८॥
मस्तफकीरी.
पूनमचांदनी खीली पूरी अहीरे-ए राग. अति अलमस्तफकीरी बुद्धिसागर महाराजनीरे,
जेनुं वर्णन करतां वाणी विरमी जाय. अति-ए टेक. साखी-शांतस्वरूप सोह्यामj, शांतस्वरूप सत्कर्म:
__ शांति भरेली वाणीथी, पावन पाल्या धर्म. निर्मल एक अगोचर अलख निरंजन ध्यानमार;
अवधूत एवी दशानी वृत्ति केम विसराय. अति० ॥३॥
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७४
साखी-आत्माऽहं रटना सदा, जेनुं साचुं सूत्र;
विश्व सकल मम आतमा ए पुत्रि ए पुत्र. म्हारुं त्हारुं एवी गणना अज्ञानी तणीरे ।
जेने वसुधा एक कुटंब सदा समजाय. अति० ॥२॥ साखी-अगमपंथ जेनो घणो, अगम अगोचरदेव:
अगमभावना आत्मनी, अगमसुखावह सेव. जेनी अगमदशा आ जगमां सज्जन ___ पावक ज्वाला जेवी जेनी प्रेमप्रभाय. अति० ॥३॥ साखी-मुखने नव संभारता, दुःख पण तेवी रीत; ___सहजानंद स्वभावमां, पूरी जेनी प्रीत. जेनो राज रंकपर सरखो भाव सुहावतोरे,
वृत्ति एक अखंडित जिनवरमां देखाय. अति० ॥४॥ साखी-अज्ञानी जाणे नहिं, भेदु जाणे भेद; __अखेददेशनी वातने, शुं ? समजेज सखेद. गुरुवर समदर्शी जग सदा शीयलसंतोषनारे; __उत्तम अनुभव महिमा वदतां केम वदाय ? अति० ॥५॥ साखी-देशविदेशे नामना, जाणे संतो सर्व
गुणनिधि दुर्गुण परिहर्या, मोह नहिं नहिं गर्व. वासी आनन्दघन यश विजयदेवना देशनारे;
महिमा गुरुनो जाणी अजितमूरि नित्यगाय. अति० ॥६॥
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७५
२८
श्री गुरुदेवने.
गजल सोहिनी. उद्यानमां गुलाबनी, कोमलकलिका जोड़ छे; मृदु कुन्द सौम्य शिरीषने, मधुमालिका पण जोइ छे. उद्यान० ॥ १ ॥ कोमलपणानी रसभरी, यौवनदशा निरखी अति; पण आपना त्यां हृदयनी, मृदुभावना देखी नथी. उ० ॥२॥ जन पतितपावनी बोलता. ते जोइ छे भागीरथी; मोहनतणी यमुना तथा, अतिरम्य जोइ सरस्वती. उ० ॥३॥ तापी तथा आ नर्मदाने जोइ छे साबरमती:
पण आपना शुभभावनी, रसवाहिनी देखी नथी. उ० ॥४॥ चलकाट करती चन्द्रिका, आकाशमां देखी घणी: प्रातःसमय पूर्वा विषे, किरणावली देखी घणी. उ० ॥५॥ विद्युत्तणा चमकारनी, म्हें देखी छे ज्योति अति: पण आपना त्यां ज्ञाननी, ज्योत्स्ना कदी देखी नथी. उद्यान० ||६||
सिन्धुतणीय अगाधता, आकाशनी उंडाणता; हिमगिरितणी उंचाणता, जलबिन्दुओनी प्रमाणता.
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उद्यान • ॥७॥ www.umaragyanbhandar.com
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७६
ए सर्व म्हें देख्यां छतां, गुरु आपना सरखां नथी; चैतन्यसम जडवस्तु, प्रौढत्व म्हें देख्यां नथी. उ० ॥८॥ आकाशना तारातणी, गणना कदीक बनी शके; वर्षादना जलविन्दुनी, गणना कदापि थइ शके; उ० ॥९॥ पण गुरु तणा गुणनी कदी, गणना सुणी देखी नथी; गुरुदेवसम म्हें दिव्यता, जन अन्यमां देखी नथी. उ० ॥१०॥ सिंहे करेली गर्जना, गजयूथने भय आपती; ने मूर्यनी ज्योति तिमिरना, पुंजनेज हठावती. उ०॥११॥ एवी गुरुनी गर्जनाओ, पाप ताप प्रजालती; गुरु गर्जना सम गर्जना, बीजे महद् देखी नथी.उ० ॥१२॥
केवल दैव ?
गजलसोहिनी. मम जन्मनी भूमि जूदी, ने अन्य पृथ्वी आपनी: मम मध्यता गुजरातनी, उत्तर हती गुरु आपनी. मम० |१॥ मम जन्मनी जाति जूदी, वली आपनी जाति दी: आचार पण जूदा अने, वृत्ति हती तेमज जूदो. मम० ॥२॥ ना जाणतो गुरु कोण छो? ना जाणता हुं कोण छु; त्यां जाण सर्वबनी गइ, छो कोण गुरु हुं कोण छं. मम०॥३॥
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وقا
हुं अन्य पंथे परवर्योने, आप पण बीजे गया; पण पूर्वना परिवल वडे, संबंधी थइ भेगा थया. मम ।।४।। म्हारी अने गुरु आपनी, थइ भूमिकामां एकता; म्हारी अने गुरु आपनी, थइ जातिमाही एकता. मम० ॥५॥ उत्तर अने वळी मध्यनी, आजे बनी गइ एकता: आचार वृत्ति विचारमां, गुरु आज थइ गइ एकता. मम०॥६॥ आ दैवनी कृति एकतानी, भिन्नता केमज बनेः अद्वैत-मांहि एकतानी, द्वैतता क्याथी बने. मम०७॥ जे नगरमा मूतो हतो, त्यां मृत्यु घंटा गाजती: घनश्याम मूना आश्रमे, शय्या अमे कीधी हती. ममः॥८॥ त्यां एकदम आवी तमे, आज्ञा सुखद आपी दीधी: जाग्रत मधुर आवी अने, निद्रा दुःखावह दूर कोयो. मम०॥९॥ म्हारा सुना मंदिर विषे, भरपूर वस्ती आपनी; म्हारा मृदुल मंदिर विषे, मृदुभक्ति शस्ती आपनी. मम०॥१०॥ म्हारा सुभग आश्रम विषे, शुभमूर्ति हसतो आपनी; विसराय ना ने जायना, रसता हती ते आपनी. मम०॥११॥ आ दैवकृत संयोगनो, उपयोग पण पूरण थयो; घनरात्रि आज हठावी भासुर, उदय पण पूरण थयो.
मम० ॥१२॥
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आ अमरताना योगमां, मरता हवे दे नहि मरता मरी अमरत्वमा, त्यां अन्य कंइ प्रीच्छु नहिं. मम०॥१३॥ जाता नहिं जाता नहिं; जातां छतां जाशो नहिं; मूरि अजितनो आश्रम तजी, बीजे खुशी थाशो नहिं.
मम० ॥१४॥
पद,
तारुं मनडु मायामां मोही रहारे, ___ भर्यु अंतरमा अति अभिमान:
एथी ईश्वरने त्हें नव ओलख्यारे. ए टेक. कदी परनुं भलं करतो नथीरे,
देतो नथी गरीबोने दान: एथी० ॥१॥ जुटुं वोल्यामां दिवसो जायछेरे,
म्हारा पापमां बंधाणा के प्राण. एथी० ॥२॥ नथी दीनता दया ल्हारा दीलमारे,
___ धन हरवामां धर्यु सदा ध्यान. एथी० ॥ ३ ॥ परनार जनेता समी जाणी नहीरे,
गम्या घटमां कपट कंकास; एथी० ॥ ४ ॥ संत साधुने कदी नमतो नथीरे,
खलखूटलना संग गम्या खास; एथी० ॥ ५ ॥
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नने विचार विवेक घडी नव गम्योरे,
नथी प्रभुजीना नाम उपर प्यार; एथी० ॥६॥ संत साधुनी सेवना साधी नहीर,
शेठ लोकोनो मोटो सरदार; एथी० ॥ ७ ॥ माटे समजीने सिद्ध पंथ चालजेर,
प्रभु भजनमां थाजे हुंशोयार; एथी० ।। ८ ॥ अजितमूरिना व्हालाने भज भावथीरे,
त्हारा भवनो बेडो थाय पार. एथी० ॥९॥
गुरुस्मरणाष्टकम्
वसन्ततिलका. मच्चित्सुखास्पदमनन्यगुणानुहारी.
___ सौराष्ट्रराष्ट्र जनतापरिपुप्रहारी; निर्बानमोह भवभीतिरबापहारी,
सूरीशबुद्धिजलधिः स्वर्गोत्सुकोहा? l दीव्यात्मशक्तिमणिना हृदयावरूद,
गाढान्धकारमखिलं भवता निरस्तम् । विज्ञानवास ? कुमताध्वनिवारकस्त्वं,
रिक्ता त्वयाद्य वसुधाऽधिविराजते नो ॥२॥
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सर्वागमार्थविदखण्डितबोधगेह
विद्यापुरस्थजनमङ्गलहेतुराद्यः । अद्यामरेन्द्रपुरवासमनुप्रपन्ना,
शून्यं विभाति जगदिष्टगुरो ? समस्तम् ॥३॥ हे मूरिपुङ्गव ? विभो जनसंशयानां,
छेत्ताऽधुना न सुलभः समतानिधानः । कं ज्ञानिनं समधिगम्य मनोभिलाषां,
पूर्णीकरिष्यति वचःसुधया जनोऽयम् ॥४॥ विद्यावतां व्रतजुषां स्पृहणीयशीलः,
शीलाङ्गभारवहनेऽतिधुरन्धरश्री:: अध्यात्ममण्डलविभावक आत्मनिष्टः,
सुरीश बुद्धि जलधिः स्वदशां प्रयातः ॥ आनन्दमूर्तिरखिलागपसारवेदी,
विज्ञातदर्शनमतोमतभेदभिन्नः । संप्राप्तपण्डितपदः कविराजराजः,
सूरीशबुद्धिजलधिः स्वगति प्रपन्नः श्रीविरशासनमिदं रुचिरं विभाति,
यद्वाग्विलासविभवेन सुविस्तृतेन । यत्पादपङ्कजरतिः शुभदा नराणां,
मूरीश बुद्धिजलधिः स्वगति प्रयातः ॥७॥ हे सद्गुरो ! मतिसुधारक ? तावकीनं,
पादारविन्दमतुलं सततं स्मरामि ।
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॥
नान्यन्मदीयशरणं कलयामि सूरे ?
__संसारतारक ! विभो ? भवपारगामिन् सूरीधरेण सुधियाऽजितसागरेण, __संगीतमेतदनपायमुखपदायि । गुर्वष्टकं गुरुगुणानुविधानदक्षं, ।
स्मर्तुः सदा सुखकरं कलिकालमध्ये
॥९॥
' श्रीमद् योगनिष्ठ सद्गुरुश्रीबुद्धिसागर
सूरीश्वर-विरहाष्टकम्
शार्दूलविक्रीडितम् ।। श्रीमान् धर्मधुरन्धरः सुखमयः शङ्कातमस्तारकः, ___ कर्मारिक्रमभेदकः क्षितितले सद्बोधबीजाकरः । स्याद्वादामृतसिन्धुशीतकिरणश्चारित्रचूडामणिः,
श्रीमद्बुद्धिपयोधिमूरिसविता कास्तंगतः संमतः ॥२॥ वक्ता वादिगणेषु वादविरतः सत्याञ्चितान्तः क्रियो
वैराग्यैकरसामानसवरः सर्वार्थसिद्धिपदः । सर्वांपत्तिनिवारको मुनिवरः संपार्थितः सर्वदः, __ श्रीमान् बुद्धिपयोधिसूरिसविता कास्तंमतः संमतः ॥२॥ अध्यात्मैकविदां सदव विदितः सद्धयानमेरुश्रितो
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भक्तानामभयङ्करः शिवकरः सर्वापदां वारकः । नानादर्शनदीक्षितः क्षितिभुजां मौलीकृतोऽकामतः,
श्रीमान् बुद्धिपयोधिमूरिसविता वास्तंगतः संमतः ॥३॥ दुर्दैवस्य विलास एष निखिलः प्रोज्जृम्भितो भूतले,
मन्ये सद्गुरुपुङ्गवस्य विरहः स्यादन्यथा मे कुतः । योगानन्दविलासलासितमनाः सिद्धिश्रिया सेवितः; __ श्रीमान् बुद्धिपयोधिमूरिसविता वास्तंगतः संयतः ॥४॥ यस्यानन्तमुणानुवादकरणे नो शक्तिमान् वाक्पति___ यद्गाम्भीर्यममाधमुन्नतधियां नैव स्फुरेन्मानसे, । तत्वार्थप्रतिबोधभासुरगिरां यः संशयोंच्छेदका,
श्रीमान् बुद्धिपयोधिमूरिसविता सोऽस्तंगतः संयतः॥५॥ श्रीमद्भारतभूमिभूषणमलं मोहान्धकारापहः ।
श्रीमद्गौतमसम्पदा कुलगृहं हन्ताऽऽपदा लौकिकीम् । श्रीयोगीन्द्र इलाधिराजमहितः, शिष्ठक्रियाकर्मठः,
श्रीमान बुद्धिपयोधिमूरिसविता काऽस्तंगतः संयतः ॥६॥ ग्रन्थान् याकृतवान् अतं सुललितानष्टोत्तरं भासुरान्,
तत्वार्थप्रचुराश्चराचरहिते नित्योद्यमी संयमी। सोऽयं भास्वरकान्तिमान् प्रकटयनित्तिमार्गक्रम,
श्रीमान् बुद्धिपयोधिमूरिसविता काऽस्तंगतः संवतः ॥७॥ लोकाना पकारकारकगुरो ? सर्वत्र कीत्तिस्तव, __ त्रैलोक्यां विलसत्वखण्डितगुणा संदर्शनं दीयताम् ।
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निर्मूल्यात्मसमाधिना रिपुमणं स्वानन्दसौधस्थितः,
श्रीमान् बुद्धिपयोधिसूरिसविता काऽस्तंगतः संयतः॥८॥ शुद्धानन्दविधायकं भवभयक्षोभान्तकं पावनं,
मूरीशाजितसागरेण विहितं गुर्वष्टकं शोभनम् । थे शृण्वन्ति हृदि स्मरन्ति मनुजा नित्यं पवित्रात्मना,
तेषां सन्निधितामयन्ति विविधाः संपत्तयः शोभनाः ॥९॥
गुरुगुणगीतम्
कन्वाली.
महानन्दं निरानन्दं, निराकारं निराबाधम् । सुखाकारं चिदानन्दं, पदं शुद्धं सदाभीष्टम् । क्रियाकाण्डं समभ्यस्तं, तपस्तप्तं त्रिधा गुमम् । नरामरनाथसंगुकं, पदं मनसाऽपि नो क्लुप्तम् ! प्रभो ! बुद्धिसुधासिन्धो ? स्मरामि त्वत्पदाम्भोजम् ॥१॥ भजनमैकान्त्रिकं कान्वं, निरारम्मं मनानन्दप । विशाल लालितं तावत्-कृपासागर ? मुनीशेन । सदा सूरीन्द्रगुणनिष्ठ ? महायोमीन्द्रपदधारिन् ? प्रभो ॥२॥
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कुबोधारे ? विनोहारे ? भवभ्रान्तिक्रमच्छिन्न ? रचिततत्त्वाकरग्रन्थ ? समागमसारनिर्मन्थ ? परापरभेदतात्यागिन् ? निरंजन देवतारागिन् ? प्रभो ॥३॥ क्षमाधारिन् ? गुणाचारिन् ? प्रतापिन् ? बालब्रह्मचारिन ? महायोगिन् ? पराभासिन् ? सुभाषितसाररसधारिन् ? धराधीशमजापक्षिन् ? विपक्षारिक्षयाकारिन् ? प्रभो ॥४॥ मणीमोति लल्लुवाडी, सुरागी वीरचन्द्रश्च; गुणानन्दे रता मोहन-जिवनमुख्या महाभक्ताः। कृतार्थ मन्यते जन्म, स्वकीयं सर्वदाभत्त्या ? प्रभो ॥५॥ जगज्जीवास्त्वनेकेऽपि, भवराणीसुधासिक्ताः, भवापत्ति क्षणात्तीर्त्ता, महानन्दालये रक्ताः; कृताः केऽपि त्वया मुक्ता-महामारीभयाद्भक्ताः. प्रभो ॥६॥ मधुपुर्यां जिनाधीश-महासौधान्तिके रम्यम् । सुघण्टाकर्णवीरस्य, निकामं मन्दिरं शुभ्रम् । विभान्ति प्रेमसंबद्धाः, स्वपरपक्षाश्रिता लोकाः प्रभो ॥७॥ कियन्तो देशवासिनः, समासाद्य प्रकटबोधम्, भवच्चरणाम्बुजासन्नाः, महासंसारपारीणाः । विभान्त्रि प्रेमसंबद्धाः स्वपरपक्षाश्रिता लोकाः ? प्रभो ॥ ८ ॥ जननमरणापहो लोके, त्वदन्यो दृश्यते नैव: इदानीं कं गमिष्यामि ? शरण्यं तत्त्वजिज्ञासुमुनीनां मण्डलं शून्य, विभाति त्वद्विभाहीनम् ? प्रभो ॥९॥
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सुधासारां भववाणी, कृष्णगोतामयीं पीत्वा; असकृच्छमणोऽऽगारं, प्रयाताः संमृतेः पारम् । विशुद्धं चित्रचारित्रं, त्वदीयं सिद्धसुखमित्रम् । अजितमूरिकृतं स्तोत्रं सदा बुद्धिमदं भवतु. ॥ प्रभो ? १० ॥
गुरुविरहाष्टकम्
ललित छन्द. भवभयात्तिहं ते पदाम्बुजं, भुवि मुदुर्लभं मूरिपुङ्गच । गुरुकृपानिधे बुद्धिवारिधे ? वितर दर्शनं कामदं वरम् ॥१॥ म्मरणमुत्कटं ते मुनीश्वर ? मोक्षशर्मदं भक्तवल्लभ ? वरद ? विश्वतस्तारकोत्तम ? वितर दर्शनं कामदं वरम् ॥२॥ कलिमलापहं भद्रकीर्तनं, तव विभो ?क्षितौ क्षीणकर्मणः । श्रुतमहोदधे स्तच्च वेदक ? वितर दर्शनं बुद्धि वारिधे ? ॥३॥ नव विभुतयः सर्वतः स्थिता-पतिमतां मनःसद्मनि प्रभो ? कलयितुं न कोऽप्यरित ताःक्षमो,-वितर दर्शनं बुद्धिवारिधे?॥४॥ तव समाधिना नाथ : केवलं, शयनमकिनो दुर्भगाःखलु; विधिवशादिदं जातमक्षप, वित्तर दर्शनं बुद्धिवारिधे ? ॥५॥
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विशदभूतिमाँल्लौकिको गणो, तवगुरो ? वचःसंपदा सदा; तदपि तावकं दर्शनं वरं,नहि जनः प्रभो ? विस्मरत्यहो ? ॥६॥ मधुमतीजनक्षेमदायक ? विविधतत्वतो मीतगायक । विगबमन्युना संघपालक ? वरगुरो ? शुभं दर्शनं तव ? ॥७॥ भवति शोभनस्त्वद्रतोजनो-निखिल सिद्धिमान् दुर्मतास्तथा ? परमभावतः प्रेमभाजन ? वितर दर्शनं बुद्धिवारिधे ? ॥८॥ भवारण्ये भ्रान्ता-जननमरणत्रातविधुराः, __ अनेके संयाता,-ध्रवपदमखण्डात्मविभवाः । अयं ते सद्भावः समजनि महामोदजनक
इदानीं स्वर्यातः किमु गुरुवर ? क्षेमसदन ? ॥९॥ अजितसागरः मूरिरष्टकं, गुरुगुणप्रियः पावनं वरम् । श्रुतिपथं जना ये प्रकुर्वते, विहितवानलं ते शुभान्विताः ॥१०॥
३४
श्रीसद्गुरुस्मरणम्.
स्रग्धरात्तम्श्रीमन्तं ज्ञानवन्तं विशदमतिमतां संमतं चारुमूर्ति,
सौभाग्यैकप्रधानं प्रवरसुखपदं सर्वशास्त्रप्रवीणम् । शुद्धानन्दमकाशं विबुधजनवरं कर्मभूमीरवनित्रं, बुद्धयब्धि सुरिवर्य स्मरत भविजनाः ? सद्गुरुं दिव्यरूपम् ॥१॥
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८७
अव्यक्तार्थप्रबोधं विमथितमदनं धर्मतश्वमदानं, विद्यारण्याम्बुधारां समधिगतसुखं साधितार्थप्रमाणम् । सच्चित्तानन्दगेहं जननमृतिहरं मृत्युपारं प्रयातं, बुद्धयब्धि सूरिवर्यं स्मरत भविजनाः ! सद्गुरुं दिव्यरूपम् ||२|| रे रे ! भव्यात्मलोकाः ? श्रयत पदयुगं यस्य सिद्धान्तभाजः । मोक्षस्वर्गार्थदायं विविधसुखमयं सर्वसंपत्तिराजः । छिन्नाऽनर्थप्रतानं कविकुलतिलकं भूरिलोकगीतं, बुद्धधिसूवि स्मरत भविजनाः ? सद्गुरुं दीव्यरूपम् ॥३॥
श्रीमद्विद्या पुरस्था नरयुवतिगणाः कीर्त्तिपीयूषसारं, पीत्वा पीत्वा निकामं सुखरतिमगमन् दिक्षु लोकाश्च यस्य; लोकालोकप्रभावं सदतुलविभवं सिद्धिशर्मैकधाम, बुद्धयन्धि सूरिव स्मरत भविजनाः सद्गुरुं दीव्यरूपम्॥४॥ गीता गीतार्थयुक्ता श्रितनिगमनया येन सा कृष्णगीता, fasaण सारा विलसति वसुधामण्डले मोदमाला । योगाङ्गज्ञानवित्ता सुरचितघटना भिन्नकर्मप्रभावा, बुद्धयन्धि सूरिवर्यं स्मरत भबिजनाः सद्गुरुं दीव्यरूपम् ॥ ५ ॥
दर्श दर्श प्रभावं भवभयहरं यस्य सूरीश्वरस्य, श्रावं श्रावं यदीयां भजनविरंचनां निर्ममत्वार्थबोधम् । स्मारं स्मारं च शैलीं गुणगणविदितां तुष्टिमन्तः समस्ता, - बुद्धयधिसूविर्ये स्मरत भविजनाः सद्गुरुं दीव्यरूपम्॥६॥
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८८
सारं सारस्वतं यो मनसि कलितवानक्षतं शुद्धबुद्धया, न्यायं नव्याऽनवीन स्मृतिविषयम (लं) रं चत्रिवानेकभावः । वेदान्तं वेदसारं भजनपदतया व्यावृणोदक्षतार्थ.
बुद्धयन्धि सूरिव स्मरत भविजनः सद्गुरुं दीव्यरूपम् ॥ ७॥ भूतानां भूरिभाग्याद् गुरुगुणनिलयं यं धरन्ती धरित्री, रत्नाढ्या कोर्त्तिते जनहृदयहरं कल्पवल्लीप्रभावम् । दैवं सर्ग प्रपन्नस्तदखिलजनताऽभाग्यमेवाधुनाऽसौ. बुद्ध्यधि सूरीवर्यं स्मरत भविजनाः ? सद्गुरुं दीव्यरूपम् ॥८॥ मूरीशेनाजितेन प्रविहितमनघं स्तोत्रमेतद्गुरूणां,
श्रीशान्तिक्षेमसौधं जननमरणहं दुःखदारिद्र्यहारि । श्रुत्वा ये धारयन्ते निजहृदि विशदान् सर्वशमकमूलान्, तेषां सर्वात्मसिद्धिर्भजति शुभगुणान् पाश्वभावं स्वभावात् ॥ ९ ॥
३५
गुरुगुणाष्टकम्.
आत्मध्यानपरायणं निजगुणान्संशोधयन्तं सदा, ज्ञानानन्दमहालयं श्रितजनक्षेमङ्करं शङ्करम् । हेयाऽहेयविवेकरत्नजलधिं सत्यव्रतक्षेत्रकं,
मूरिश्रीवृतबुद्धिसागरमुनिं बन्दे सदा योगिनम्
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॥१॥
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॥३॥
विद्यारत्नमहोदधि मुनिवरं निर्मानमोहक्रम, योगक्षेमसमानतां विदधतं स्वच्छक्रिये मानसे । जिज्ञासुश्रमशोषिणं नयवचःपीयूषसंसेचनात्, मूरिश्रीतबुद्धिसामरमुनिं वन्दे सदा योगिनम् ॥२॥ सच्छ्रद्धावनवीथिकावनधरं सौभाग्यसारपदं, हिंसाऽरण्यहताशनं कलिमलमध्वंसगङ्गाजलम् । उच्छिन्नान्तरवैरिवार मनघं दीव्यप्रभाभासुरं, मूरिश्रीकृतबुद्धिसागरमुनिं वन्दे सदा योगिनम् निर्मातारमनेकशासनविधि वक्तारमन्यप्रियं, दातारं सुखसंपदा प्रतिदिनं हर्तारमक्षेमताम् । त्रातारं विषमस्थितिप्रतिहतान् जेतारमक्षत्र, मूरिश्रीकृतबुद्धिसागरमुनि वन्दे सदा योगिनम् मान्यानामपि माननीयममलं तेजस्विभिः सेवितं, क्षुब्धानामपि चेतसि प्रकटयन्तं सत्यबोधं सदा । विज्ञानैकसुधाकरेण मनुजान्सन्तोषयन्तं भुवि, मूरिश्रीकृतबुद्धिसागरमुनि वन्दे सदा योगिनम् यत्पादाम्बुजदर्शनेन विपदो, नश्यन्ति भव्यात्मनां. सम्पत्तिश्च समुन्नति कलयति क्षेमाङ्कुराम्बुषदा । कीर्तिर्दिक्षु दशस्वपि प्रतिदिनं व्याप्नोल्यकालोद्गमाः मूरिश्रीवृतबुद्धिसागरमुनि वन्दे सदा योगिनम् ॥६॥
॥४॥
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यन्मूर्तिहदि भाविता जनयते माङ्गल्यमालां शुभा, दुर्वारोऽरिगणः प्रशाम्यति महासंसारदुःखप्रदः निर्वाणं निजभावतोऽपि विधिना सान्निध्य मापद्यते, मूरिश्रीकृतबुद्धिसागर मुनि वन्दे सदा योगिनम् ॥७॥ सद्वचनामृतसेवधि निरवधि मोदं सदा विभ्रतं, कैवल्यं कलयन्तमात्ममुखदं तत्त्वाऽवधानेन वै। दीनानुद्धारयन्तमत्र पतितान्संसारगर्त क्षणाद् बुद्धिक्षीरनिधिं स्मरामि सततं मूरीश्वरं योगिनम् in सर्वापत्तिपयोधर प्रतिहतौ वातप्रकाण्डं महद्. दुष्कर्मारिसमूहमर्दनविभु क्षेमङ्करं सर्वदा । सद्गुर्वष्टकमेतदिष्ठसदनं संपद्यतां सर्वदं, मरीशाजितसागरेण विहितं त्रैलोक्यसंत्रायकम् ॥९॥
सद्गुरुस्मरणाष्टकम्
स्रग्धरावृत्तम्सद्भावेनोपपन्नं क्रमगुणनिधितां भावयन्तं समानां, लोकेषु ख्यापयन्तं धृतिशमनिवहं चेतसा चिन्तयन्तम् । .
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संसारोद्विग्नभावं कलिमलजडतां हापयन्तं स्वबुद्धया,
लोकानानन्दयन्तं प्रकृतिवशगतान् बुद्धिवद्धि नमामि ॥१॥ ध्यानारूढं सुनासं दृहतरविहितानन्यपद्मासनस्थं,
विज्ञानज्ञानसोदकनिधिमतलं छिन्नभावारिपाशम कारुण्याक्रान्तमूत्ति जनचयहृदयाभीष्टतत्त्वामरदूं,
योगीन्द्रं बुद्धिवाद्धि भजतु जनगणः मूरीसाम्राज्यमाजम्॥१॥ भोगाभोगोपकृत्यं शिवसुखहतकं सर्वदा वर्जयन्त,
शास्तारं वर्मसंस्थेन्द्रियतुरगगणं योगलब्ध्या सहेलम् । कामारिं कामजन्यां विविधमदकरी भावनां चोत्यजन्तं.
योगीन्द्र बुद्धिवादि भजतु जनगणः मुरीसाम्राज्यमाजम्॥२॥ वाराणस्यां वसन्तं विबुधजनगणं लब्धविद्याप्रसाद,
सन्तोषं प्रापयन्तं निरवधिममलज्ञानचन्द्रोपलेन । तं सर्वैः सर्ववृत्त्या सकलकलगुणप्राप्तये सेक्नीय;
योगीन्द्रं बुद्धिवादि भजतु जनगणः मूरिसाम्राज्यमाजम्॥४॥ नित्यानन्दप्रकाशं प्रमथितमदनं गीतनीतिप्रभाव
मज्ञानध्वान्तराशिं निजमतिरविणा नाशयन्तं जनानाम । ध्यानाध्वानं विशालं विदधतमनघं भरिभाग्योपसेव्यं,
योगीन्द्रं बुद्धिवार्दूि भजतु जनगणः सूरिसाम्राज्यभाजम् ।।५।। प्राणायामप्रवीणं प्रकटितविभवं सिद्धिसौधाघिरूलं, योगाङ्गज्ञानवित्तं प्रविदितसकलमत्नतत्त्वागमार्थम् ।
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सर्वानर्थप्रभेदं शरणमुपगतानुद्धरन्तं समस्तान् ,
योगीन्द्रं बुद्धिवाद्धि भजतु भविगणः मूरिसाम्राज्यमाजम्॥६॥ विख्यातं दिक्षु सर्वास्वपि निजगुणतः शुद्धवृत्तिस्वभावं,
सद्धर्मणोपपन्नं सुघटितसुकृतं सर्वतन्त्रस्वतन्त्रम् । शुद्धप्रेम्णो निशान्तं प्रशमित कलह क्रूरकर्मान्तकारं, योगीन्द्रं बुद्धिवादि भजतु भुविजनः मूरिसाम्राज्यमाजम।।७॥ दुर्बोधानीहतत्त्वान्यतिसुगमतया व्यावणोद्यः सुरवाय,
दुर्बोधान्यान्मनुष्यान्विकसितनयनान्व्यातनोत्स्वीयशक्त्या । दुर्वादस्थान्समस्तानकुरुत सततं सत्यमार्गाधिरूढान् , योगीन्द्रं बुद्धिवाड़ि भजतु भुविजनः मूरिसाम्राज्यभाजम्।।८।। अजितसागरमूरिविनिर्मितं, स्वगुरुभक्तिरसेन शुभां गतिम् । कुमतिभूरुहकुअरमष्टकं, श्रुतिपथं कुरुते स तु वीक्षते ॥९॥
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मुद्रक: चीमनलाल ईश्वरलाल महेता
वसंत मुद्रणालय
मुद्रणस्थानः घीकांटारोड, सीविल हॉस्पीटल सामे,
अमदावाद
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હ
શાસૂવિશારદ, યોગનિષ્ઠ, અધ્યાત્મ-મસ્ત કવિરત્ન,
જૈનાચાર્ય, શતાધિક ગ્રંથરચયિતા. શ્રીમદ્ બુદ્ધિસાગરજી મહારાજની
ટૂંક જીવનરેખા
ર૧ મી યંતિ પ્રસંગે ૨૦૦૨ જેઠ વદી ૩ સેમ, તા ૧૭-૬ ૪૬
સ્થળ: ગોડીજી જૈન ઉપાશ્રય મુંબઇ
- મiદશકર
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શાસ્ત્રવિશારદ, યોગનિક, અધ્યાત્મ-મસ્ત કવિઓનાર્થ
શતાધિક ગ્રંથ રચયિક શ્રીમદ બુદ્ધિસાગરની ન... * ટૂંક જીવનરેખા *
મહાગુજરાતના વડોદરા રાજ્ય શાપિત, વિજાપુરમાં કણબી પટેલ શિવદાસને આંગણે વિ. સં. ૧૯૩૦ના મહા વદિ ચૌદશ, શિવરાત્રોના રોજ શુભ સ્વપ્નસૂચિત એક ભાગ્યશાળી બાળકને જન્મ થયે. તેમની માતાનું નામ અંબા હતું. ભાઈઓ, બહેને હતાં. તેમનું નામ બહેચર પાડવામાં આવ્યું. અસંસ્કારી કૃષિકારને બાળક ત્યાંની ગામઠી શાળામાં ગામની ભાગોળે વિશાળ વડલા હેઠળ લાકડાની પાટી અને વતરડાંની કલમથી ધૂળ વડે એકડે લખતે લખતે આગળ ઉપર મહાન બને છે. ઉંમરલાયક થતાં માતાપિતાના પરણાવવાના કેડ અધૂરા મૂકી ત્યાગના મારથ સેવે છે, માબાપના વાત્સલ્ય-ઉપકારે સમરી તેમના જીવતાં ત્યાગી ન થવા નિશ્ચય કરે છે, અને વિદ્યાથી મટી શિક્ષક-વિશ્વાટવીને વિદ્યાથી બની નીકળી પડે છે, આજીવન બ્રહ્મચર્ય ધારણ કરે છે, અને ત્યાગ, વિરાગ, સંયમ, અલખના અહાલેક દ્વારા દેવી ગુર્જરીને અઈ, તેની શહીદી મંજૂર કરે છે.
દેવગે મહાન સદગુરૂ શ્રી રવિસાગરના દર્શને આંતરચક્ષુ ખુલે છે, અને ત્યાગી થવાની ભાવના દૂર થાય છે. ખૂબ ખંતથી અભ્યાસ કરે છે. નવું નવું જેવા, જાણવા, શીખવામાં ડૂબી જાય છે. ૧૯૫૭ માં માતાપિતા સ્વર્ગથે સંચરે છે, અને Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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સદ્દગુરૂચરણે પહોંચી જઈ ગુરૂમંત્ર (દીક્ષા) આપવા વિનવે છે. તેમના ત્યાગ, વિરાગ, અને હૃદયની વિશાળતાની ખુશબોએ ખેંચાએલો પાલણપુરીય સમસ્ત સંઘ ભવ્ય આડંબરથી તેમને સં. ૧૯૫૭ માગશર શુદિ ૬ ના રોજ શ્રી રવિસાગરના પટ્ટશિષ્ય શ્રી સુખસાગરજીના હસ્તે દીક્ષિત બનાવે છે, અને પછી તે આ આત્મકલ્યાણને મસ્ત સાઘક વિશ્વના ખુલ્લા વિશાળ ચેકમાં, વિશ્વને આત્મકલ્યાણ, અધ્યાત્મ, વેગ, સ્વદેશ, સમાજ અને સ્વધર્મોન્નતિના કલ્યાણતર માગના પયગામ આપતા ફરે છે.
ગુજરગિરાને અન્ય સમેવડી ભાષાઓથી ઉન્નતશિરા કરવાના કેડ સેવતા શ્રીમદ કલમ વાણી અને જીવનના પુષચંદન સહિત દેવી ગુજરીને અર્પાઈ જાય છે. સર્વ સંપ્રદાય, વિદ્વાને અને તત્વચિંતકોને જ્ઞાનાનુભવથી મુગ્ધ કરે છે.
સં. ૧૯૬૯માં તેમના ગુરૂદેવ સ્વર્ગગમન કરતાં ગચ્છાધિપતિ થવું પડે છે, અને આખા સંઘાડા (સંઘાટક-પિતાના શિષ્ય અને ભક્ત પરિવાર) ના રક્ષણવિકાસની જવાબદારી તેમને માથે પડે છે, છતાં આ વર યેગી બધાની અસલિયાત સમજી સ્વફરજ પ્રબ ચીવટાઈથી અદા કરે છે. પછી તો તેમના અગાધ જ્ઞાનથી મુગ્ધ બનીને શ્રી પેથાપુરને જૈન સંઘ તેમને સં. ૧૯૭૦ માં આચાર્યપદ સાડંબર સમાપે છે, અને તેમના કાવ્ય, ન્યાય, તર્ક, વ્યાકરણ, અષ્ટાંગયોગ, અને અધ્યાત્મવાદની ખુશબ, તેમના ગહન ગ્રંથ દ્વારા કાશી, બનારસ સુધી પહોંચે છે, અને વિદ્વતા -જ્ઞાનના સિયા કાશીના મહામહોપાધ્યાય અને પંડિતે તેમને શાસ્ત્રવિશારદના મહાન બીરૂદ (પદવી) થી સન્માને છે. ધીમે ધીમે જેને ઉપરાંત હજારે મુસ્લીમ, અંત્યજે, મીર, પારસીઓ, બ્રાહ્મણ, પાટીદાર, ઠાકરડા, ભીલ, કળી, તેમના અનન્ય ભક્ત બની રહેવામાં જીવન સાર્થક સમજે છે. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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પછી તે શ્રીમદ પિતાના જ્ઞાનની પરબ કેઈ સંપ્રદાય પૂરતી અનામત ન રાખતાં વિશ્વ સમસ્તનાં પ્રાણું માત્ર માટે ખુલ્લી મૂકે છે અને પિતે સર્વનાં, વિશ્વમાં બની વિશ્વને પિતાનું બનાવે છે.
તેમનાં “સર્વદર્શનમસહિષ્ણુતા, ગહન ગ્રંથાલેખન, વિદ્વત્તાપૂર્ણ વ્યાખ્યાનોના પરિમલ ઠેઠ વિદ્વશ્રેષ્ઠ ગુર્જરેશ્વર શ્રીમંત સયાજીરાવ ગાયકવાડને મુગ્ધ કરે છે અને તેઓ શ્રીમદને પિતાના મોટા અમલદારને મોકલી પિતાની પાસે વ્યાખ્યાન આપવા આવવા બહુ માનપૂર્વક આમંત્રે છે, અને લક્ષ્મીવિલાસ રાજમહાલયમાં એક ઉંચી પાટ પર તેમને વંદન સહિત પધરાવી પિતે વિનયપૂર્વક અનેક દરબારીઓ, વિદ્વાને, શાસ્ત્રીઓ, અને રાજ્યકુટુંબની હાજરીમાં તેમનું “આમેન્નતિ” એ વિષય પર કલાક સુધી વ્યાખ્યાન સાંભળે છે, અને મહારાજા હર્ષાન્વિત બની બલી ઉઠે છે કે, “આહા! જે આવા થોડા વધુ સંતે ભારતમાં હોય તે દેશદ્વાર ઘણે નજીક આવે ” અને બીજીવાર બેલાવી તેમને સાંભળે છે, અને તેમને ખાતરી થાય છે કે, છેલાં હજાર વર્ષમાં ગુજરાતે પ્રગટાવેલાં નરરત્નોમાં તેમનું સ્થાન શ્રેષ્ઠ છે.
વિશ્વબંધુત્વજગકલ્યાણની ભાવનાભર્યા, ગુર્જરી-સ્વદેશના લાડીલા, શુદ્ધ ખાદીધારી, વિરલ વિચારક, સાચા સુધારક, શ્રીમદ પગપાળા, પિતાને આત્મસંદેશ આપવા ગુજરાત, મારવાડ, મેવાડ, સૌરાષ્ટ્ર, દક્ષિણ, વગેરે પ્રદેશમાં ઘૂમી વળે છે. અનેક વિદ્વાને રાજવીએ, ઠાકરે, યુરેપિયન, ક્રિશ્ચિયને, સમાજીસ્ટ, થીએસોફીસ્ટ, ધર્માચાર્યો, પંડિત, મુમુક્ષુઓ, અને દરિદ્રનારાયણેના હૃદયદ્વારે પહોંચી તેમને પાત્રાનુસાર આત્મજ્ઞાનરસામૃત પાય છે;
અલખની ધૂન મચાવે છે; મહાત્મા ગાંધીજી સાથે સ્વદેશેતિની Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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ગૂઢ વિચારણું ચલાવે છે; લાલા લજપતરાય, પંડિત માલવિયા, જેવાઓ સાથે દેશ અને ધર્મોન્નતિની વિચારણાઓ કરે છે; રાવબહાદુર રણછોડભાઈ ઉદયરામ, શ્રી કેશવ હર્ષદ ધ્રુવ, કવિ સમ્રાટ ન્હાનાલાલ વગેરે જેવા સમર્થ સાહિત્યાચાર્યો સાથે ગુર્જરગિરાના ઉત્કર્ષના ઉપાયે ચર્ચે છે, જેનાચાર્યો, જેન સાધુઓ અને જેન નરનારીઓને શ્રી મહાવીરનો સંદેશો સમજાવે છે; અને પોતે સર્વથી અલિપ્ત બની નિજાનંદ મસ્તીમાં વધુને વધુ ડૂબતા જાય છે
સાંપ્રદાયિક ભેદભાવની વાદિવાલે તેડી સૌ સંપ્રદાયના પ્રાણસમા આચાર્યો ને ભક્તો સાથે, પ્રભુ અને આત્માના અલખગાનની ધૂન મચાવે છે; શીધ્ર કવિત્વશક્તિ, ઉગ્ર તત્વચિંતન, સુકુમાર કલ્પનાશક્તિ અને ન્યાયતકેયુક્ત શાસ્ત્રપરિગામીપણાથી વિદ્વાનેને ચકિત કરે છે, રાત્રિદિવસ શંકાસમાધાન અને સ્વાનુભવજ્ઞાનામૃતની પરબે પોતાની તૃષા છીપાવવા જીવનમાર્ગના હજારો રસપિપાસુઓ તૃષાતુર બની આવે છે અને પિતાની તૃષા છીપાવે છે.
આજીવન પગપાળા પર્યટન, ચાર્તુમાસમાં એક જ સ્થળે સ્થિરતા, અપરિગ્રહી કેઈ આપે તેજ વસ્તુ વાપરનાર)-સાધુઆચાર અને પોતાના શિષ્ય પરિવારના સંરક્ષક અને ત્યાગી. અવસ્થાના માત્ર વીસ વરસના જ કાલાવધિમાં બારસે, હજાર, પાંચસે પૃષ્ઠના ડેમી” સાઈઝના વેગ, અધ્યાત્મ, ઉપનિષદ, વૈરાગ્ય, ઇતિહાસ, તત્ત્વજ્ઞાન, સ્વદેશ, સધ, કુદરત વગેરે નાના મોટા શતાધિક ગ્રે થે લખી નાખે છે, ભજનના ભંડાર ખુલ્લા મૂકી દે છે અને કાવ્યોના કેકારવથી ગુર્જરેદ્યાન ગજવી મૂકે છે. હજારે ભક્તજિજ્ઞાસુઓ તેમની આસપાસ હંમેશાં સ્થળે સ્થળેથી આકર્ષાઈ આવી જ્ઞાનામૃતપિપાસાથી તેમના મુખચંદ્રના ચાતક બની રહે છે. અંત્યજેના મહારાજ, મુરિલમોના ઓલિયા, હિંદુShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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એના સંત, જૈનાના ગુરૂ, ખાલકેાના માપજી, અને શિષ્યાના તારક, ઉદ્ધારક થઇ પડે છે. સ' દનના વિદ્વાના, રાયર'ક, તેમના સહેવાસના અભિલાષી બને છે. જાહેર વ્યાખ્યાનૈાથી જનતાને નવચેતનવંત બનાવે છે. વિમલ છતાં વિદ્યુત શક્તિભરી તેમની જીવતી વાણીને અજબ પ્રવહુ એકસમયાવચ્છેદે હજારની શંકા સમાવે છે. નદી કિનારા, કાતર, ગિરિગુફા અને ભોંયરામાં અલખની મસ્ત ધૂનમાં અષ્ટાંગયોગઆત્મપ્રભુથી એકતા સારું છે. સાડા આઠે મણુ વજનનું ખાળબ્રહ્મચર્યનું જવલત તેજે ઝળહેંળતુ નીરોગી શરીર કલાકા સુધી શીર્ષાસન કે અન્યાસના કરતુ જોનારને એમની આત્મશક્તિ નીરખવાની લહાણુ સાંપડી છે.
તેમણે પ્રથમ ચાતુર્માસ સુરત, પછી પાદરા, વિજાપુર, માણસા, મુંબઈ વગેરે મળી કુલ ચેાવીસ ચાતુર્માસા ભિન્ન ભિન્ન સ્થળે ગાળ્યા છે. ત્યાં અને પ્રવાસમાં ગુજરાતી, અંગ્રેજી અત્યજશાળાઓ, ધ શાળાઓ, ગુરૂકુળ, મંદિરો, પાઠશાળાએ, બેડી ગે, જ્ઞાનદિરા, સેનીટેારિયમ, પ્રગટાવવા પ્રયત્ના સેવ્યા છે અને તેમાં સફળ થયા છે, સંઘા કઢાવ્યા છે, તથા ધર્મિક સામાજિક અને રાજકીય ઉત્કર્ષ માં અપ્રહિત ઉપદેશ આપતા રહ્યા છે. અધ્ય:ત્મજ્ઞાનપ્રચાર એ તેમનુ મુખ્ય મીશન હાઇ તથ્ એક મહામંડળની આવશ્યકતા જોઇ, તેમણે સ. ૧૯૬૪માં દેશના ખૂણે ખૂણેથી અનેક મુમુક્ષુઓને ભેગા કરી માસામાં એક શ્રી અધ્યાત્મજ્ઞાનપ્રચારક મંડળ’ની સ્થાપના કરી હતી, અને તેજ મડળે તેમના તમામ ગ્રંથા લક્ષાધિ રૂપિયા ખર્ચીને પ્રગટ ક્યો છે. કેટલાય ગ્રંથાની પાંચ સાત આવૃત્તિએ થઇ છે, અને બ્રિટિશ અને વડાદરા રાજ્યના કેળવણી ખાતાએ કેટલાય ગ્રંથા મન્નુર કર્યા છે. આ મંડળ અત્યારે પણ સારી રીતે ચાલી રહ્યું છે. આ પછી આ સરસ્વતીનદન પેાતાનું મીશન' ચાલુજ રાખે છે. તેમના સાધેલા અત્યો ઉત્તમ આત્મજાગૃત દશા
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મેળવવા લાગ્યા, મુસલમાને હિદુ જેવા બન્યા, દયાને ઝંડે ફરકવા લાગ્યા, અને સર્વત્ર તેઓ એક મહાન યેગી, પ્રખર વક્તા, મહાકવિ, સમર્થ પંડિતાચાર્ય, ગૂઢ વિચારક, સમયજ્ઞ સુધારક, અનેકવાર વિજેતા, સબળ પરમસહિષ્ણુ, સ્વપરસમયજ્ઞ, વચનસિદ્ધ શાસ્ત્રવિશારદ અને સમર્થ આચાર્ય તરીકે પ્રસિદ્ધિને પામે છે.
વિજાપુરમાં તેમના ઉપદેશથી પથ્થરનું એક ભવ્ય જ્ઞાનમંદિર તૈયાર થયું છે, જેમાં ધ્યાન માટે સેંથરા તથા લક્ષાવધિની કિંમતનાં શ્રીમદે સંગ્રહેલાં ષદર્શન, સર્વ ભાષ નાં છાપેલાં હસ્તલિખિત તાડપત્ર પરનાં પ્રાચીન અર્વાચીન, સહસ્ત્રાવધિ પુસ્તક સંગ્રહાયેલાં છે. આ સર્વ અણમેલ સંગ્રહ શ્રીમદે વિજાપુરનાં શ્રી સંઘને સ્વાધીન કરી દીધો છે.
સં. ૧૯૮૧ માં શ્રીમદ પિતાનાં તમામ પુસ્તકો જલદી પ્રગટ કરવા આતુર જણાયા; અને સામટા સત્તાવીશ ગ્રંથે આઠ પેસેને અપાયા. તમામની પ્રેસકેપીએ જેઈ જવી, બીજાઓની મદદથી બુફે તપાસવાં, પ્રસ્તાવના લખવીઆ બધું જાતે જ કરતા જાય અને કહેતા જાય કે “હવે વખત ભરાઈ ગયા છે, મહાપ્રયાણની તૈયારી છે;” પણ ભક્તો તે સાચું માનતા નહિ, કારણ આ વખતે તે જુદાં જુદાં ઠેકાણાંના કેટલાય સંઘે, ૧૯૮૧નું ચાતુર્માસ પિતાના શહેરમાં કરવા પધારવાને શ્રીમદને આમંત્રના આવ્યા હતા અને શ્રીમદ્ તે તેમને કહેતા કે “ભાઈ ! હવે કેણુ ચાતુર્માસ કરવાનું છે? ” છતાં આ અલમસ્ત ભેગીના શબ્દ તેમને ગળે ન ઉતરતા. જેઠ મહિનાના પ્રારંભમાં શ્રીમદે સેળ પૃષ્ઠને એક લાંબે પત્ર પિતાના ચુસ્ત ભકત પાદરાનિવાસી વકીલ મેહનલાલ હીમચંદ પર લખે, જેમાં “મૃત્યુ એ એક Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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રણમાંથી પાસ થઈ ઉપલા ધોરણમાં ચઢવા જેવું યા તે આત્મોન્નતિ કમની એક ભૂમિકા ઉપર ચઢવા જેવું છે. હું પરવારી ગયે છું સમય નિકટ છે, તમે પણ ચેતજે” (આ પત્ર પત્રસદુપદેશ ભાગ ત્રીજામાં છપાયે છે) વગેરે. અને વકીલ પણ સહકુટુંબ મહુડી, (મધુપુરીવિજાપુરથી ચાર કેશ) ગુરૂસેવામાં હાજર થઈ ગયા. મહેસાણા નિવાસી મેહનલાલ ભાંખરિયા પણ સહકુટુંબ સેવામાં હતા જ. જેઠ શુદિ પૂર્ણિમા (મૃત્યુ પૂર્વે ત્રણ દિવસો સુધી તે “કક્કાવલિ સુબોધ ગ્રંથ તેઓ લખતા હતા. પિતાનું મૃત્યુ યેગીએજ પહેલેથી જાણી શકે છે. બીજને દિવસે તેમણે એક વિદ્વાન જોશીને બેલાવીને, રાજગ ક્યારે છે, તે પૂછતાં જેઠ વદિ ત્રીજ (બીજે જ દિવસે) સવારે આઠ અને નવની વચ્ચે બતાવ્યો. મધુપુરી બહુજ નાનું ગામ હોવાથી સૌના આગ્રહથી ત્રીજના પ્રાત:કાળે શ્રીમદ વિજાપુર પહોંચી ગયા, અને
૩૪ જાન મહાવીર” તેમને હંમેશને પ્રિય ઘેષ ઉચ્ચારવા લાગ્યા. આ વખતે તેમના પટ્ટશિષ્ય અનેક ગ્રંથાલેખક વિદ્વાન આચાર્ય શ્રી અજીતસાગરસૂરિ તથા અન્ય સાધુશિષ્ય, સાધ્વી શિષ્યાઓ તથા હજારો ભક્તો હાજર હતા. વકીલજી તેમની પાસેજ હાજર હતા. “કોઈને કાંઈ પૂછવું છે? આવવાનું કેઈ બાકી છે? એમ પૂછતાં વકીલ મેહનલાલભાઈને નેત્ર સંકેતથી સૂચવતાં શિષ્ય અને ભકત સમુદાય સાવધ થઈ ગયે, અને શ્રીમદે અંતિમ ઉપદેશ આપ શરૂ કર્યો, ત્યારે સૌ આ મહાપ્રયાણ સાચું માનવા લાગ્યા કે ખરેખર વખત ભરાઈ ચુક્યા હતું. આ વખતે ગુરૂભક્તિમાં વર્ષોથી સમÍઈ જઈ સેવામાં રહેનાર પ્રાંતીજવાસી ડે. માધવલાલ હાજર હતા. સૌને છેલા આશીર્વાદ દઈ ૩૪ જાઉં ના ઉરચાર સહિત શ્રીમદ વિરમ્યા. તેમના મુખ ઉપર અલૌકિક હાસ્ય અને પ્રકાશ પ્રગટયાં, નેત્ર મીંચાયાં, અને બીજી જ ક્ષણે ખુલી ગયાં. બાજી સ કેલાઈ જેઠ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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વદિ ત્રીજે સવારે સાડાઆઠ વાગે, રાજગમાં અદ્દભુત પ્રકાશ પાથરતો ઉજજવળ દીપક બુઝાયે અને સર્વત્ર શેક અને હાહાકાર છવાયાં મૃત્યુ સમયે અને તે પછી ચોવીસ કલાક પર્યત તે મુખશ્રીપર વિલસતું હાસ્ય અને પ્રકાશ કયાંય ન જણાયેલાં એવાં હતાં, એમ ડેકટરે જણાવે છે. આમ આ મહાપુરૂષની જીવનલીલા સમેટાઈ. હસતે મુખડે મૃત્યુને ભેટનાર આ આત્મામસ્ત અવધૂત વીરકેસરી સુભટ અનંતધામે પરવર્યા અને આજન્મ ગુર્જરીની આરાધના કરનાર, ગુર્જરીને શહીદ, સમર્થ વિદ્વાન યેગી, ગુર્જરી પૂજનમાં જ ખપી ગયે.
તેઓશ્રીનાં અંગલક્ષણે ચમત્કારિક હતાં, કપાળમાં ચંદ્ર, કમર સુધી પહોંચતા આજાનબાહુ (હાથ), હાથપગનાં આંગળીમાં અઢાર ચક, વિશાળ બળવાન સાડાઆઠ મણ વજનને દેહર્યાભ, ભવ્ય મુખમુદ્રા, પહાડી અવાજ, એક સાચા ભેગો તરીકે તેમને વ્યકત કરતાં.
મહાનગચ્છાધિપતિ, આચાર્યો હોવા છતાં, રાજાઓ, ઠાકોરો શ્રીમંત અને વ્યાપારીઓ ભકત હોવા છતાં, તેમણે કિંમતી કપડાં કે કામળ કદી વાપર્યા નથી, પણ આજીવન ખાદી જ વાપરી હતી. કદી પણ અઢેલીને બેઠા નથી, દિવસે નિદ્રા લીધી નથી, મુખવાસ કદી વાપર્યો નથી. સ્ત્રીવર્ગ સાથે પરિચય કે પત્રવ્યવહાર કર્યો નથી. સ્વાદિષ્ટ ભજન નીરસ કર્યા વિના વાપર્યું નથી. એક જ પત્રમાં તમામ આહાર આવે અને વપરાતે. લેખન, વાચન, ધ્યાન, પ્રવાસ, ધર્મચર્ચા અને ઉપદેશ સિવાય અન્ય કાર્યનિંદા, વિકથા કે ડાકડમાલમાં તેઓ કદી પડયા નથી. વિલાયતી દવા કદી વાપરી નથી. સરળ, દંભરહિત, નમ્ર, શાંત, સંપીલું, પ્રેમભર્યું, સાત્વિક ગીજીવન હંમેશાં ગાળ્યું છે Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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શ્રીમદે એકદસ મહાગ્રંથ ત્યાગી અવસ્થામાં લખી ગુર્જર સાહિત્ય સમૃદ્ધ કર્યું છે. વાચ્યું, સાંભળ્યું કે જાણ્યું નથી ઈતિહાસે કે કેઈ ત્યાગી સંતે ચોવીસ વરસના પરિમિત કાલાવિધિમાં અનેક વ્યવહાર સાચવતાં છતાં આટલી ભાષાઓમાં આટલા ગહન વિષયના એકસે દસ ઉપરાંત મહાગ્રંથેનાં સર્જન કર્યો હોય.
એમનાં ગૃહસ્થજીવન, કવિજીવન, સાધુજીવન, ભક્તજીવન, પ્રેમજીવન, પંડિતજીવન, આધ્યાત્મિક જીવન, મસ્તફકીરીજીવન,
ગીજીવન, ત્યાગીજીવન, આદિપર તે પૃથક પૃથક ગ્રંથો ભરાય. આ અતિ સંક્ષિપ્ત જીવનમાં શું લખાય? છતાં કવિ પ્રેમાનંદની માફક આ સંતે માતૃભાષાને અન્ય સમવડી જ નહિ પણ ઉત્તમસ્થાનાલંકૃત કરવાનો સંકલ્પ શતાધિક ગ્રંથાલેખનથી. પિતાની હૈયાતીમાં જ પૂર્ણ કર્યો. કવિ પ્રેમાનંદને સંકલ્પ અધુરો જ રહ્યો જાણે છે.
તેમના ગ્રંથ દર્શન કરવા યોગ્ય છે. એ ગુર્જરીની આરાધનાને પુનિત અવશેષ અત્રે હાજર છે. ગુર્જરીના પૂજક, વિદ્વાન, વિદુષીઓ ! તે જુઓ, અને ગુર્જરીના આ લાડીલાના મોંઘામૂલા વારસાને તમારો કરે.
મહાગુજરાત ગુજરીના આ ભકત, શહીદ, સંતના મહામૂલા આરાધન પ્રત્યે કેટલું બેદરકાર છે, તે કદાચ અમરાપુરીની અટારીએ રહી શ્રીમદ્દ જોતા હશે? એમના અમર આત્માને શાંતિ હો!
ગુર્જરીને જયશ્રીરંગ
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શ્રી મહાવીર પ્રિન્ટિંગ વર્કસ, ૪પ ધનજી સ્ટ્રીટ, મુંબઈ ૩
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________________ ii થશlોહિ. alc Philo bilera e pe Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com