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दीवो० ॥८॥
देव-दनुज-मुनि सिद्ध चोराशी, परिहरे ज्ञानदीवाथी उदासी; अखंड अमर दीवो प्रभुनो प्यारो, ध्यान धिरजथी उरमां धारो; अजित सागर गुरु ज्ञाननो दीवो, प्रगट करी जगमां घणुं जीवा;
दीवो० ॥९॥
दीवो० ॥१०॥
फलम. पूजाभिरष्ठधा नित्यं, योनरः पूजयिष्यति । गुरु पादाम्बुजद्वन्दू, तं शिवश्रीर्वरिष्यति ॥१॥
दुहा कलश भर्यों के भावनो, पाणी निर्मल प्रेम. पूजन सद्गुरु देवजें, आपे कुशल खेम; अंतरमा उभराय छे, सूरिवर केरो स्नेह. करुणा केरा आपता, मांघा मीठा मेह;
॥२॥
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