Book Title: Guru Vani Part 02
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 33
________________ प्रभु के साथ चित्त जोड़ो १५ गुरुवाणी-२ अजाग्रत मन में बसे हुए हैं । निमित्त मिलने के साथ वे बाहर आ जाते हैं। कोई व्यक्ति बहुत बोलता रहता है अथवा बड़-बड़ करता रहता है तो हम नहीं कहते - क्या कुत्ते के समान भौंक रहा है? हमें कोई सच्ची सलाह देने के लिए आता है किन्तु उसकी बात हमें रुचिकर प्रतीत नहीं होती तो क्या हम गधे के समान उसको लात मारेंगे या नहीं? हम स्वभाव से कुत्ते के समान हैं, गधे के समान हैं, बिच्छु के समान हैं, सांप के समान हैं और गिद्ध के समान हैं। जिस प्रकार गिद्ध वृक्ष की ऊंची से ऊंची डाली पर बैठकर अपनी नजर चारों ओर घूमाकर भक्ष की खोज करता है उसी प्रकार हम सबकी नजर दूसरों को लूटने के लिए घूमती रहती है या नहीं? ये समस्त कुसंस्कार हमको चारों गति में भटकाते हैं, रखड़पट्टी करवाते हैं। प्रभु का स्मरण ही प्रभु शरण है. अनादिकाल के बन्धे हुए इन संस्कारों को हम किस प्रकार निकालें ? शास्त्रकार कहते हैं कि प्रभु के साथ सम्बन्ध स्थापित करो, उनका नाम बारम्बार याद किया करो। प्रभु के नाम में अपूर्व शक्ति है, किन्तु परमात्मा को भूल कर चलने वाली आज की दुनिया पाप के गढ्ढे में गिर रही है। परमात्मा की शरण और परमात्मा का स्मरण तीर्थंकर बनाता है । श्रेणिक महाराज ने जीवन के प्रारम्भ में अनेक पाप किए थे, किन्तु जब उन्हें सच्ची दृष्टि प्राप्त हुई और भगवान् महावीर के स्मरण में लयलीन बने तो उन्होंने तीर्थंकर बनने की योग्यता प्राप्त कर ली। भगवान् महावीर के स्मरण को जीवन के साथ ऐसा एकमेक कर लिया कि उनकी चिता की लकड़ी में से भी वीर-वीर ऐसी ध्वनि निकलती थी । अतः भावी चौवीसी में उनके शरीर का प्रमाण, वर्ण आदि समस्त भगवान् महावीर के समान ही होंगे। आज हमारे चित्त में परमात्मा के स्थान पर परपदार्थ भरे हुए हैं। चौवीसों घण्टे उन पदार्थों के सम्बन्ध में ही विचारणा चलती है। अरे ! परमात्मा की भक्ति करने हेतु मन्दिर में

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