Book Title: Guru Vani Part 02
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

Previous | Next

Page 137
________________ दया आसोज वदि १ धर्म का मूल पाया ही दया है। दया बिना कोई धर्म हो ही नहीं सकता । श्रावक स्नान करता है तो वह भी प्रभु पूजा के लिए। पूजा के लिए किया गया स्नान पुण्य कर्म का उपार्जन करने वाला होता है। आज का कथित श्रावक स्नान में दो-चार बाल्टी पानी को खत्म कर देता है। उसका पाणिघर/पीने के पानी का स्थान कतलखाना है, रसोईघर कतलखाना है, शौचालय और स्नानगृह कतलखाना है, आज सारा घर ही कतलखाने में बदल गया है। पानी का अपव्यय तो इतना बढ़ गया है कि भूमितल में भी पानी समाप्त हो रहा है। प्रत्येक दिन सैकड़ों बाल्टी पानी शौचालय और बाथरूमों में बह जाता है। है कोई इसका उपयोग? अपने यहाँ पानी को घी के समान व्यवहार में लेने का विधान है। अरे, ऐसे ही जैनों के घर और बंगलों में कृत्रिम पानी के फव्वारे लगाना, बढ़िया घास की लॉन लगाकर, पन्द्रवें-पन्द्रवें दिन बढ़ी हुई घास को कटवाना आदि कार्यों में उसमें रहे हुए बेचारे त्रस जीवों का कचूम्मर निकल जाता है। यह केवल शोभा के लिए और अनावश्यक ही किया जाता है। यह समस्त हिंसामय और पापमय प्रवृत्तियाँ होने से तत्काल बन्द करने जैसी है। पन्द्रह कर्मादानों का व्यापार करना ये सब हिंसा के कारखाने हैं। यह सब कार्य सच्चे जैनों को शोभा नहीं देते। धर्मरुचि अणगार.... वसन्तपुर नगर में जितशत्रु नाम का राजा राज्य करता था। उसकी धारिणी नाम की रानी थी और धर्मरुचि नाम का पुत्र था। पुत्र के युवावस्था में आने पर राजा ने रानी को कहा - अपने वंश में प्रत्येक राजागण पुत्र को राज्य सौंप पर वनवास ग्रहण कर लेते हैं, वानप्रस्थ तापस बन जाते हैं। इसलिए मैं भी पत्र को राज्य सौंप कर वनवास स्वीकार

Loading...

Page Navigation
1 ... 135 136 137 138 139 140 141 142