Book Title: Guru Vani Part 02
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 139
________________ १२१ गुरुवाणी-२ दया जाओ। माता-पिता स्वयं के संतानों की इस भव की चिन्ता तो करते ही हैं, साथ ही अनेक भवों की चिन्ता भी करते हैं। राजकुमार ने माता-पिता के साथ संसार त्यागने का हठ किया। माता-पिता ने भी योग्य जानकर पुत्र के साथ संसार का त्याग कर वानप्रस्थ स्वीकार किया। किसी कौटुम्बिक जन को राज्य का भार सौंप दिया। वन में झोपड़ी बनाकर रहने लगे। विविध प्रकार की आतापना लेते। कन्द-मूल तथा फलाहार से जीवन निर्वाह करने लगे। तापसाश्रम के निकट ही अन्य बहुत से तापसगण रहते थे। किसी पर्व दिवस के आने पर उसके पूर्व दिवस पर ही अनाकुट्टि (अणोजा) की घोषणा कर दी जाती। अर्थात् पर्व-दिवसों में कोई भी बाहर से दर्भ, समिध, कन्द, मूल-फल लेने के लिए नहीं जाता। पूर्व दिवस में ही लाकर के रख देते थे। धर्मरुचि ने पिता से पूछा - अनाकुट्टि का अर्थ क्या होता है? पिता ने कहा - उस दिन कोई भी वृक्ष के पत्ते आदि का छेदन नहीं करे, किसी जीव कि हिंसा नहीं करे। जिस प्रकार हमारे में जीव है उसी प्रकार प्रत्येक वनस्पति में भी जीव है अतः उस दिन जंगल में फिरने भी नहीं जाए। क्योंकि, भूमि पर हरी घास होती है उस पर पग रखने से जीवों की हिंसा होती है, तो फिर फल-मूल, कन्द, आदि तोड़ने से तो हिंसा अधिक ही होगी। इसीलिए पर्व-दिवस में हिंसा न करने की घोषणा पहले ही कर दी जाती है। धर्मरुचि के मन में दया के परिणाम पहले से ही पड़े हुए थे। उसने विचार किया कि यदि वनस्पति में जीव है तो फिर प्रतिदिवस अनाकुट्टि क्यों नहीं करनी चाहिए? वह इस प्रकार का विचार कर रहा है उसी समय उसके पास से तीन जैन मुनि निकलते हैं। उन मुनियों से धर्मरुचि ने कहा - साधुजनों! आज तो अनाकुट्टि है और तुम विहार कर रहे हो? हमारे तापस तो कोई झोपड़ी से बाहर नहीं निकलते। साधुओं ने कहा - हमे तो प्रतिदिन अनाकुट्टि है। हम तो किसी भी दिन हिंसा नहीं करते हैं। साधु उसको धर्म समझाते है। मुनियों को देखकर धर्मरुचि

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