Book Title: Guru Vani Part 02
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 65
________________ गुरुवाणी-२ पर्युषणा - द्वितीय दिन आए। सणोसरा के ठाकुर बहुत बलवान थे और उनके पास सेना भी बहुत थी। ठाकुर को हराते-हराते मन्त्रीश्वर उदयन के शरीर पर भी गम्भीर चोंटे आईं। सारा शरीर छननी जैसा बन गया। ठाकुर पर विजय तो अवश्य प्राप्त की किन्तु स्वयं के जीवन की आशा विलीन हो गई। मरणशय्या पर पड़े हुए मन्त्रीश्वर ने धर्म सुनने की इच्छा प्रकट की। वहाँ युद्ध के क्षेत्र में साधु कहाँ से लावें? जैसे-तैसे भाट-चारण को नवकार मन्त्रादि सीखाकर तैयार किया गया। साधु का वेश पहनाया और उदयन मन्त्री के बिस्तर के पास लाए। साधु को देखते ही मन्त्रीश्वर अत्यन्त प्रसन्न हुए। सिद्धराज जैसे का दांया हाथ, विशाल साम्राज्य का अधिपति होते हुए भी जिसके रोम-रोम में जिनशासन बसा हुआ है वह अन्त समय में सम्पत्ति, पुत्र, परिवार आदि को याद नहीं करता है, याद करता है तो केवल धर्म को। साधु को देखते ही स्वतः ही उसके हाथ जुड़ गये। मंगलिक सुनी, न्यौछावर की, मन में किसी अपूर्ण इच्छा के रहने के कारण प्राण अटके हुए थे। समस्त लोगों ने इकट्ठे होकर मन्त्रीश्वर से पूछा- आपकी आखिरी इच्छा क्या है? मन्त्रीश्वर ने कहा - हाँ, मेरी एक इच्छा अधूरी रह गई। शत्रुजय का उद्धार और भरोंच के मन्दिर का जीर्णोद्धार नहीं करवा सका। वहाँ उपस्थित साथियों / अनुचरों ने कहा - मन्त्रीश्वर! आप तनिक भी चिन्ता न करें। आपकी इच्छाओं को आपके पुत्र अवश्य पूर्ण करेंगे। बस, इतना सुनते ही मन्त्रीश्वर के प्राण-पखेरु नश्वर देह को छोड़कर चले गये। यह दृश्य देखकर साधुवेशधारी भाट ने सोचा - अहो! इस वेश की इतनी महत्ता है, उदयन जैसा महामन्त्रीश्वर मेरे पैरों में गिरा है, बस अब मैं इस वेश को नहीं उतारूगाँ। उसका वेश पर बहुमान जाग्रत हुआ। उसने भावतः सच्ची दीक्षा स्वीकार की और सद्गति को प्राप्त हुआ। सैनिकों ने आकर बाहड़ मन्त्री को पिता की अन्तिम इच्छा बतलाई। पिता की अपेक्षा बेटे सवाए होते हैं। बाहड़ ने तत्क्षण ही अभिग्रह धारण किया - जब तक पिता की इच्छा पूर्ण न कर सकूँ, तब तक मैं भूमि पर शयन करूँगा, एकाशना करूँगा और ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा।

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