Book Title: Guru Vani Part 02
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 101
________________ तपाराधना अट्टम तप की आराधना श्रावक का चौथा कर्त्तव्य है - अट्ठम तप की आराधनार्था आहार संज्ञा को तोड़ना । जीव अनादिकाल से आहार का अभ्यस्त रहा है, उसको भंग करने के लिए तप करना आवश्यक है। सौ वर्ष पर्यन्त नरक की भयंकर वेदना सहन कर जीव जितने कर्मों का क्षय करता है उतने ही कर्म केवल एक नवकारसी के पच्चक्खाण मात्र से नष्ट हो जाते हैं। दस हजार करोड़ वर्ष पर्यन्त नरक की भयंकर वेदना सहन करके जीव जितने कर्मों को खपाता है उतने कर्म केवल एक उपवास करने से क्षय हो जाते हैं । इस प्रकार कितने ही चिकने कर्मों को क्षय करने की शक्ति तप में सन्निहित है । मनुष्य भले ही तीन समय खाना खाता हो किन्तु नवकारसी और चौविहार ये दो करता रहे तो उसके आयुष्य के जितने वर्ष हों उससे आधे वर्षों के उपवास का फल प्राप्त कर सकता है। आज चारों ओर आहार संज्ञा का ही बोलबाला है । मुम्बई की खाउघरा गली में जाकर देखें तो मानो दुष्काल में से न आए हों इस प्रकार वहाँ मनुष्य खड़े-खड़े ही मेजबानी की मौज-मस्ती उड़ाते हैं। पशु हमेशा खड़े-खड़े ही खाते हैं ! अपनी बराबरी किसके साथ की जाए? विचार तो करिए ? यह भयंकर आहार संज्ञा हमें कहाँ ले जाएगी ? कोरिया का एक मनुष्य यहाँ आया और • उसने कहा कि 'हमारे यहाँ तो साँप और बंदरो की हथलारियाँ घूमती हैं। जिस प्रकार तुम्हारे यहाँ मूंगफली के ठेले चलते हैं । मनुष्य हाथलारी के पास आकर खड़ा रहता है, बंदर का खून माँगता है । हाथलारी वाला बंदर के सिर में कील मारकर उसको उलटा करके एक गिलास रुधिर का भरता है और वापस वह कील उसके सिर में फिट कर देता है । पहला मनुष्य रुधिर का भरा हुआ गिलास गट-गट करके पी जाता है । कैसी

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