Book Title: Guru Vani Part 02
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 127
________________ लज्जा गुरुवाणी-२ १०९ पूज्य शान्तिसूरिजी महाराज धर्म के मूल तत्त्वों को समझाते हुए कहते हैं - धर्म करने वाला मनुष्य लज्जालु होना चाहिए। लज्जा को तो गुणों की माता कहा जाता है। गुण अर्थात् रस्सी। डोरी के अगले छोर पर कोई चीज बंधी हुई हो तो रस्सी खेंचने के साथ ही वह चीज आती है या नहीं? आती ही है। उसी प्रकार जीवन में यदि एक भी विशेष गुण हो तो वह समस्त गुणों को आकर्षित कर लेती है। लज्जालु मनुष्य अनेक अकार्यों से बच जाता है। आज तो अधिकांशतः मनुष्यों के जीवन में से यह लज्जा गुण लुप्त प्राय: हो गया है। पहले घरों में कितनी मर्यादा रहती थी। श्वशुर घर में बैठा हो तो वहाँ से बहू निकल नहीं सकती थी। पहले मनुष्य का दूसरे गाँव में विवाह होता था और विवाह कर पत्नी को घर ले आता तो कहा जाता कि यह हमारे गाँव की बहू है। घर से बाहर निकलती तो मुख पर लाज का पर्दा स्वतः ही आ जाता था। सारे गाँव की मर्यादा का उसे पालन करना ही पड़ता था। भले ही वह बड़े घर की बहू हो किन्तु गाँव के छोटे से छोटे ठाकुर की भी उसे लाज काढनी ही पड़ती थी। इस युग में तो यह मर्यादा ही समाप्त हो गई है। धीमे-धीमे छोटे गाँव और कुटुम्ब तक ही यह मर्यादा सीमित रही है। अर्थात् कुटुम्ब में जो बड़े हों - सास-ससुर,जेठ-जेठानी, मामा-मामी, काका-काकी आदि की लाज काढी जाती है। युग बदलता गया। यह संस्कार भी चले गये अब तो सिर्फ पति के साथ ही सम्बन्ध होता है। सास-ससुर के साथ मेरा क्या लेना-देना? ससुर के सामने बेधड़क और मुँहफट बोलती है, कोई मर्यादा नहीं रही। वस्त्र भी अमर्यादित पहने जाते हैं। अरे, इससे भी आगे बढ़कर आज का जमाना कहता है कि हम हमारी जात से ही विवाह करते हैं, पति के साथ नहीं। आज स्त्री को पूर्णरूपेण स्वतन्त्रता चाहिए। घर के मनुष्यों की इच्छानुसार चलने का प्रश्न ही नहीं किन्तु स्वयं की इच्छानुसार घर वालों को चलाया जाता है। जो कहीं इसका हठाग्रह पूरा न हो तो

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