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लज्जा
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गुरुवाणी-२ मजाकिया टोली गुरु महाराज के पास पहुँची। वहाँ जाकर भी मस्ती तूफान करते हुए बारम्बार आचार्य महाराज को कहने लगे - इसको दीक्षा दो, इसको दीक्षा दो। आचार्य महाराज ने एक-दो बार सुना, फिर कंटाल कर क्रोध में आ गये। एकाएक पहले श्रेष्ठि-पुत्र का हाथ पकड़कर अपने पास बिठाया और पूछा - क्या तुझे दीक्षा लेनी है? श्रेष्ठि-पुत्र भी मजाक में हाँ-हाँ कर गया। आचार्य महाराज ने उसी समय पात्र में रखी हुई राख से उसका लुंचन प्रारम्भ कर दिया। दूसरे मित्र तो यह दृश्य देखकर चिल्लाते हुए भाग खड़े हुए किन्तु श्रेष्ठिपुत्र में लज्जा नाम का गुण था इसीलिए वह चुपचाप बैठा रहा। उसने विचार किया - सज्जन पुरुषों के प्रमाद से भी बोले हुए अक्षर पत्थरों पर उत्कीर्ण शिलालेखों के समान होते हैं, बदलें नहीं जाते। ऐसा सोच समझकर उसने कहा - भगवन् ! इन साथियों की आप न सुनें। मुझे आपके वचन प्रमाण हैं। आचार्य भगवन् ने देखा कि लड़का लज्जालु और सज्जन है इसीलिए इसको दीक्षा देने में कोई आपत्ति नहीं है। मुण्डन करने के बाद तत्काल ही साधु का वेश दिया। इसी वाट-घाट में संध्या हो गई। मजाकिया मित्रों का समुदाय तत्काल ही नगर में पहुँचा । इस तरफ नवदीक्षित श्रेष्ठिपुत्र ने विचार किया कि ये मेरे साथी नगर में जाकर स्वजन सम्बन्धियों को इस घटना की सूचना देंगे और सूचना मिलते ही सब लोग दौड़ते हुए यहाँ आएंगे और मेरा वेश भी उतरवा देंगे। अतः उसने आचार्य भगवन् से वन्दन कर निवेदन किया - गुरुदेव! आपने मुझे दरिद्री से चक्रवर्ती बना दिया है, क्योंकि गृहस्थीपन यह भिखारीपन है। वह विषयों की भीख माँगता है जबकि संयमीपन चक्रवर्ती स्वरूप है। चक्रवर्ती स्वरूप होने से वह मोक्ष का भोक्ता बनता है। आप मेरे परम उपकारी हैं। अभी नगर में से मेरे स्वजन-सम्बन्धियों का समुदाय आएगा। मुझे और आपके ध्यान में विघ्न पैदा करेगा। इसीलिए आप मेरी एक विनंती मानिए। हम इसी समय अन्यत्र विहार करके चले जाते हैं। आचार्य कहते हैं - मुझे आँखों से