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दया
गुरुवाणी-२ सम्पत्ति दैवी या आसुरी .....
भगवान् महावीर ने धर्म की प्ररूपणा करते हुए मुख्य स्थान दया को दिया। बिना दया का धर्म, बिना प्राण के शरीर समान है। धर्म का अधिकारी मनुष्य दयालु होना चाहिए। आज मनुष्य के जीवन में आसुरी सम्पत्ति ने अधिकार कर रखा है। जो सम्पत्ति अन्याय या अनीति से आती है वह सम्पत्ति आसुरी कहलाती है और न्याय से उपार्जित सम्पत्ति दैवी कहलाती है। आसुरी सम्पत्ति अशान्ति, व्याधि और क्लेश को साथ में लाती है। जबकि दैवी सम्पत्ति शान्ति आनन्द और संप आदि को प्रदान करती है। आज प्रत्येक घर में अशान्ति का दावानल भभक रहा है। शेयर बाजार में मनुष्य बिना परिश्रम से लाखों रुपये कमाता है यह आसुरी सम्पत्ति का ही रूप है। जब बाजार भाव उतर जाता है तो मध्यमवर्गीय परिवार के लोगों के हृदय भी बैठ जाते हैं। आज शेर (सिंह) बकरी बन गया है। लाखों लोग जोर-जोर से चिल्लाते हुए रो रहे हैं। उनके नि:श्वासों में से मिली हुई सम्पत्ति शेयर बाजार के राजा लोग मौज-मजा में उड़ा रहे हैं। कहावत है -
तुलसी हाय गरीबकी, कबहुं न खाली जाय मुए ढोरके चामसे, लोहा भी भस्म हो जाय।
एक तरफ लोगों को निर्दय होकर लूटता हो और दूसरी तरफ धर्म में लाखों रुपये खर्च करता हो तो वह समाज में निन्दा का पात्र बनता है। भंडार में हजार रुपये चढ़ा देगा किन्तु कोई कर्जदार दुःख से बिलबिलाता होगा तो उसका एक रुपया भी माफ नहीं करेगा। तब यह कहने का मन हो जाता है - भाई! भगवान् को तुम्हारे धन की आवश्यकता नहीं है किन्तु मनुष्य के प्रति तुम्हारी हमदर्दी आवश्यक है। आज मनुष्यों में से मानवता मर चुकी है। पैसे के लिए तो भाई या बहिन किसी की भी शरम नहीं रखते। निर्लज्जता ऐसी आ गई है कि मनुष्य के पास में विपुल सम्पत्ति होते हुए भी, स्वयं के कुटुम्ब में कोई दुःखी हो और वह उसके काम में न आए तो वह सम्पत्ति किस काम की है? कहा जाता है --