Book Title: Guru Vani Part 02
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 113
________________ गुरुवाणी-२ गणधरवाद है। आत्मा मन के साथ में, मन इन्द्रियों के साथ में और इन्द्रियाँ पदार्थों के साथ जुड़ी है, इसीलिए बाहर के पदार्थ का ज्ञान होता है। भीतर के पदार्थ का ज्ञान करना हो तो आत्मा केवल मन के साथ जुड़ती है। आत्मा द्वारा सुख और दुःख रूपी गुण प्रत्यक्ष में होते हैं । सुख-दुःख का आधारभूत पदार्थ आत्मा है। सुख-दुःख यह शरीर का धर्म नहीं है। ज्ञान, सुख-दुःख ये सब अरूपी हैं अतः उनके रहने का आधार भी अरूपी ही होना चाहिए न! जो ज्ञान इन्द्रियों का धर्म होता तो आज जो नेत्रयज्ञ चलते हैं, जिसमें एक की आँख दूसरे को लगाई जाती है। जिस व्यक्ति ने आँख द्वारा पदार्थ देखें हैं तो वह आँख दूसरे को लगाने में आती है तो वह व्यक्ति पूर्व व्यक्ति के द्वारा देखी हुई वस्तुओं का स्मरण कर सकता है क्या? नहीं, क्योंकि ज्ञान आँख में नहीं रहता है, वह आत्मा में ही रहता है। स्वयं के शरीर में प्रत्यक्ष रूप से आत्मा है ऐसा अनुभव होता है किन्तु दूसरे के शरीर में अनुमान द्वारा जान सकते हैं । इस प्रकार भगवान् ने सरलता से आत्मा का अस्तित्व है यह इन्द्रभूति को समझाया। किसी मनुष्य को शंका हुई कि आत्मा है या नहीं? यह जानने के लिए उसने मरण शय्या में पड़े हुए एक वृद्ध पुरुष को काँच की पेटी में रख दिया। कुछ समय के पश्चात् उस वृद्ध की मृत्यु हो गई किन्तु उस पेटी में कहीं भी दरार नहीं आई, तो आत्मा नाम का जो पदार्थ है वह किस प्रकार से गया? उसने निश्चित किया कि आत्मा है ही नहीं। उसके संशय को दूर करने के लिए एक दीपक को काँच की मंजूषा में रखा गया। दीपक का प्रकाश बाहर आता है या नहीं? आता ही है। मंजूषा में कहीं दरार या छिद्र नहीं है तो फिर प्रकाश बाहर कैसे आया? प्रकाश को बाहर आने में काँच बाधक नहीं बनता है। उसी प्रकार आत्मा अरूपी होने से रूपी पदार्थ बाधक नहीं बनते हैं। इन्द्रभूति गौतम को आत्मा का स्पष्ट दर्शन होते ही भगवान् के चरणों में आत्म-समर्पण करते हैं। प्रभु की सेवा में जीवन पर्यन्त समर्पित

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