Book Title: Guru Vani Part 02
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 115
________________ सुदाक्षिण्यता भादवा सुदि १२ धर्म योग्य श्रावक का आठवाँ गुण.... आज चारों तरफ धर्म खूब बढ़ रहा है किन्तु क्रियात्मक रूप से। गुणात्मक रूप से धर्म लुप्तप्रायः हो गया है। चारों तरफ अनीति, छलकपट, दुराचार इतने अधिक बढ़ गये हैं कि धर्मीजन का मुखौटा पहनकर फिरने वाले के जीवन में धर्म का लवलेश भी नहीं होता। एक भी गुण का ठिकाना नहीं होगा। जीवन में यदि एक दाक्षिण्यता गुण भी आ जाए तो मनुष्य अनेक पापों में से बच सकता है। आज व्यवहार में भी हम देखते हैं कि दो आँख की शरम पड़ती है। कोई झगड़ा इत्यादि भी हो तो उससे सम्बन्धित मनुष्यों को हम कहते हैं - यह क्यों कर रहे हो? हम समझते हैं कि हमारे कहने का असर उस पर नहीं होगा किन्तु दो आँख की शरम से उसके कथन को मान लेगा। यह गुण तो मनुष्य को बहुत अकरणीय कार्यों को करते हुए रोक देता है। साकेतपुर नगर में पुंडरीक नाम का राजा था। उसके छोटे भाई का नाम कंडरीक था और वह युवराज था। उस युवराज के यशोभद्रा नाम की रूपगुणयुक्त सौन्दर्यवती पत्नी थी। एक दिन वह श्रृंगार करके बाहर घूम रही थी कि उस पर पुंडरीक राजा की दृष्टि पड़ती है। रूपवती और शृंगार से सजी हुई उसको देखकर, स्वयं के छोटे भाई की पत्नी होने पर भी उसके मन में कामवासना सुलग उठी। यह वासना अति भयंकर है। यह वासना की आग जीवन के तमाम सद्गुणों को जलाकर भस्म कर देती है। राजा, यशोभद्रा का जेठ होते हुए भी स्वयं की मान-मर्यादा को भूलकर युवराज की पत्नी के समक्ष भोग की भीख माँगता है। यशोभद्रा सती है, उसने स्वाभाविक रूप से कहा - तुम्हारा छोटा भाई विद्यमान है और तुम्हें इस प्रकार की भीख माँगते हुए लाज-शरम नहीं आती? यशोभद्रा के इस

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