Book Title: Guru Vani Part 02
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 124
________________ स्वार्थी संसार १०६ गुरुवाणी-२ नाच रही थी । थकान के कारण उसके ताल और स्वर टूट गये हैं । उसी समय मुख्य नायिका उसको सांकेतिक भाषा में समझाती है - बहुत गई थोड़ी रही, थोड़ी भी अब जाए। थोड़ी देर के कारणे रंग में भंग न आए । 1 यह दोहा सुनते ही प्रतिबोध पाकर खुद कुमार स्वयं के हाथ में रही हुई राजमुद्रा और रत्नकम्बल नर्तकी की ओर फेंक देता है । उसी समय युवराज यशोभद्र ने कुण्डल, सार्थवाह की पत्नी श्रीकान्ता ने हार, जयसन्धि नाम के मन्त्री ने कंकण और कर्णपाल नाम के महावत ने रत्न का अंकुश उस नर्तकी की तरफ फेंक दिया। ये पाँचों वस्तुएं लाख-लाख रुपये मूल्य की थी । नर्तकी को तो कल्पनातीत लाखों का दान मिला। रात पूरी हुई। राजा ने खुदग कुमार से पूछा - भाई ! तुमने इतना दान क्यों दिया ? खुद कुमार ने राजा के समक्ष अपनी आपबीती सुना दी। घटना सुनकर राजा ने कहा- बहुत अच्छा, तुम यह राज्य ले लो। कुमार ने कहा - नहीं, अब तो मैं पुन: गुरु महाराज के पास जाकर प्रायश्चित्त ग्रहण कर आत्म कल्याण की ओर अग्रसर होऊँगा । जीवन के अधिकांश वर्ष तो मैंने साधु-जीवन में व्यतीत कर दिये अब थोड़ी सी आयु के लिए उस उच्च जीवन को क्यों गवाँऊ? नर्तिकी के दोहे से मुझे बोध प्राप्त हुआ और इसीलिए मैंने प्रसन्न होकर राजमुद्रा तथा रत्न कम्बल उसे दे दिये । युवराज यशोभद्र से पूछता है - तुमने यह महामूल्यवान कुण्डल क्यों भेंट किए? युवराज कहता है - हे राजन् ! मुझे ऐसा विचार आया कि राजा वृद्ध हो गया है, लालसा के कारण राजगद्दी को छोड़ नहीं रहा है अतः उसको मारकर मैं राजसिंहासन पर बैठ जाऊँ। इस दूषित विचार को मैं निर्णय में लाने ही वाला था उसी समय इस नर्तिका के दोहे ने मुझे जगा दिया। मैंने सोचा कि राजा अब वृद्ध हो गये हैं, कितने समय तक वे जीवित रहेंगे? इनके बाद तो यह सारा राज्य मेरे ही हस्तगत होना है न! इस प्रकार मैं एक हत्या से बच गया । उसी प्रसन्नता में मैंने ये कुण्डल दान में दिए। सार्थवाह की पत्नी को पूछते हैं कि तुमने यह हार क्यों भेट किया ? श्रीकान्ता ने

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