Book Title: Guru Vani Part 02
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 122
________________ १०४ स्वार्थी संसार गुरुवाणी-२ देखकर उनका मन भी चलायमान होता है। संयम-जीवन का पालन करना अब दुष्कर लगता है। मन भोगों की तरफ आकर्षित होने लगा। आत्मा निमित्तवासी है। जैसा निमित्त मिलता है वैसा ही वह बन जाता है। इसीलिए तो महापुरुष कहते हैं कि सर्वदा शुभ-भावों में और शुभनिमित्तों में मन को जोड़े रखो। इस मुनिराज का मन धर्म-ध्यान छोड़कर आर्तध्यान में डूबा हुआ रहने लगा। साथ में रहे हुए मुनिवरों को उसने अपनी इच्छा बतलाई। मुनियों ने उसे अनेक प्रकार से समझाया, किन्तु जो मन नीचे गिर गया था वह ऊँचा चढ़ना नहीं चाहता था। अन्त में माता साध्वीजी के पास गया। वेश छोड़ने की अनुमति मांगी। माता उसे विविध प्रकार से समझाती है किन्तु वह संयम-जीवन में रहने के लिए तैयार नहीं होता। . बालमुनि की दाक्षिण्यता .... अन्त में माता साध्वी कहती है - भाई! तेरी इच्छा से तू संयम जीवन में बारह वर्ष तक रहा, अब मेरी इच्छा से तू बारह वर्ष और रह। भले ही संयम-जीवन से तू विरक्त हो गया है, उसके प्रति तेरा रस समाप्त हो गया है तब भी जीवन में दाक्षिण्यता का बीज पड़ा हुआ है। इस कारण से वह मुनि विचार करता है कि माता कहती है तो मैं कैसे अस्वीकार कर दूं। माँ की शरम बीच में दीवार बनकर खड़ी हो जाती है। तुम लोग कभी अपने माता-पिता का विचार करते हो क्या? आज के माता-पिता की दशा और व्यथा देखते हैं तो हमारा हृदय काँप जाता है। घर में कोई सम्मान या स्थान नहीं होता। पुत्र ही नहीं पौत्र भी दादा-दादी के सामने बोलते हुए हिचकता नहीं है। क्षण मात्र में इज्जत उतार देता है। माँ-बाप के नि:श्वासों से ही अधिकांशतः घरों में क्लेश और अशांति छाई हुई है। माँ-बाप के आशीर्वाद रूपी दवा से बड़े से बड़े रोग भी दूर हो जाते हैं। जिस घर में माता-पिता की पूजा होती है वह घर स्वर्ग के समान होता है, वहाँ सदा शान्ति का साम्राज्य छाया रहता है। खुदगकुमार ने माता की

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