________________
१००
सुदाक्षिण्यता
गुरुवाणी-२ नगरी में आयी। राजा के पंजे में से तो छूट गई किन्तु अब मैं क्या करूँ? उसी समय उसने देखा कि कितनी ही साध्वियाँ स्थंडिल भूमि/शौच से वापिस लौट रही थीं। रानी उनके पीछे-पीछे उपाश्रय तक पहुँची। उपाश्रय में प्रमुख साध्वीजी बैठी हुई थी। रानी ने वन्दन किया और उनके चरणों में मस्तक रख दिया। रोते-रोते उसने अपनी आप-बीती कही। कर्मराजा किसी को छोड़ता नहीं है। कर्म का सिद्धान्त सबसे बड़ा दर्शन है। जगत् में जो कुछ अच्छा है वह शुभ कर्म का फल है और जो कुछ दु:ख प्राप्त होता है वह अशुभ कर्म का फल है। इसीलिए महापुरुषों ने कहा है कि कर्म के सिद्धान्त को समझो, उठो-जागो और सत्कार्य करना प्रारंभ करो। शुभ कर्मों के उपार्जन से पुण्य प्राप्त करो और शान्ति प्राप्त करो। इसके लिए प्रभु के मार्ग को केवल संयम-जीवन को नहीं किन्तु धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझना पड़ेगा न? अनन्त जन्मों के इकट्ठे कर्मों को भोगते-भोगते नाकों में दम आ जाता है। समस्त कर्मों को अल्प-समय में ही क्षय करना हो तो जिन भक्ति के द्वारा किया जा सकता है। जिन भक्ति के द्वारा पूर्व संचित कर्म जड़ से खत्म हो जाते हैं। भगवान् के नाम का जाप यह उत्तम साधन है। हजारों रुपयों के नोटों की गणना करनी हो तो कितने आनन्द और एकाग्रता से गणना करते हैं? गणना करते समय थकान या कंटाला आता है क्या? नहीं। ऐसा आनन्द और एकाग्रता जो भगवान् के नाम का जप करते समय आ जाए तो कर्म नाश हुए बिना नहीं रहेंगे। भक्ति भी एक रस है और उसका स्वाद भी होता है। यह तो निश्चित है कि जाप करते हुए पापबन्ध तो नहीं होता है न? पदार्थ का स्मरण करने से क्या पदार्थ मिल जाते हैं? बल्कि आर्तध्यान से पापबन्ध होता है। अन्तिम समय में एक क्षण भी प्रभु के नाम का स्मरण मन से हो जाता है तो सद्गति होती है। अरे, पाँच मिनट का किया वह स्मरण जो उत्तम गति को प्रदान करता है तो घण्टों, महीनों और वर्षों तक किया हुआ प्रभु का स्मरण क्या नहीं प्रदान करता है? अन्त समय में जो पदार्थों का स्मरण