Book Title: Guru Vani Part 02
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 106
________________ गणधरवाद हमारे समस्त तीर्थंकर भगवान् क्षत्रिय वंश में हुए हैं। गौतम स्वामी आदि गुरुजन ब्राह्मण जाति के हुए हैं और इस धर्म का पालन करने वाले हम लोग (वैश्य) व्यापारी हैं, यह एक विशेषता है । जब भगवान् महावीर अपापा नगरी में पधारे उस समय समस्त जाति के देव वन्दन करने के लिए उनकी सेवा में आ रहे थे । समीप के प्रदेश में ही इन्द्रभूति आदि के चार हजार चार सौ छात्र परिवार सहित यज्ञ मण्डप में बैठे हुए थे । देवों को आते हुए देखकर इन्द्रभूति मन में फूलकर कुप्पा हो जाते हैं । अरे, मेरे यज्ञ की कीर्त्ति देवों तक पहुँच गई इसीलिए ये सारे देवगण मेरे यज्ञ मण्डप में आ रहे हैं, किन्तु देवगण तो यज्ञ-मण्डप को छोड़कर आगे निकल गये । इन्द्रभूति आदि पुन: विचार करते हैं कि ये देव कहाँ जा रहे हैं? क्या आसपास में कोई दूसरा वादी है ? समस्त वादियों को तो मैंने पराजित कर दिया था, शायद कोई शेष रह गया हो। क्यों न उसके पास जाकर, उसे हराकर मैं अजित बन जाऊँ । ऐसा सोचकर इन्द्रभूति पर्षदा में जाते हैं। देशना चल रही है। हालांकि भगवान् को पराजित करने के लिए आए थे किन्तु भगवान् की शान्तमुद्रा को देखते ही ठण्डे पड़ जाते हैं, क्योंकि इन विद्वानों के पास विद्या का बल था जबकि भगवान् के पास में साधना का बल था। परोपकार - वृत्ति का तेज था । स्वार्थ का तेज काला होता है । निःस्वार्थ परोपकार का तेज उज्ज्वल होता है । भगवान् इन्द्रभूति को कहते हैं - इन्द्रभूति गौतम ! पधारो - पधारो । इन्द्रभूति चौंकता है। मन में सोचता है कि इसने मेरा नाम कैसे जाना ? स्वयं ही अपने संदेह का समाधान भी कर लेता है कि मैं तो सारे विश्व में प्रसिद्ध हूँ, मुझे कौन नहीं जानता। किन्तु मेरे मन में रही हुई शंका को यह सर्वज्ञ दूर कर दें तो मैं इनका शरण स्वीकार कर लूँ ।

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