Book Title: Guru Vani Part 02
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 74
________________ ५६ पर्युषणा - द्वितीय दिन गुरुवाणी-२ ही नहीं उसने मूलनायक भगवान् की मूर्ति को भी खंडित कर दिया। चारों ओर हाहाकार मच गया। मुसलमानों का राज्य फैला हुआ था। हिन्दु राजागण कमजोर पड़ गये थे। ऐसी विकट परिस्थिति में पुनः प्रतिष्ठा कौन करावे? यह एक प्रश्न था। बादशाह मूर्तिभंजक थे, अतः उनके पास से अनुमति प्राप्त करना अत्यन्त कठिन था। पाटण में समराशाह नामक एक मुख्य श्रावक था। उसका दिल्ली के बादशाह के साथ अच्छा परिचय था। समराशाह दिल्ली पहुँचा। उसने बादशाह से विनंती की, समराशाह का प्रभावशाली व्यक्तित्व होने के कारण बादशाह उसकी बात को नहीं टाल सका। मूर्ति की प्रतिष्ठा के लिए आज्ञा प्राप्त की। सब लोग पाटण आए। संघ एकत्रित हुआ। किस पत्थर की मूर्ति बनाई जाए? यह प्रश्न खड़ा हुआ। समराशाह ने संघ को कहा – वस्तुपाल के लाए हुए पाषाण रखे हुए हैं, उनको भण्डार से निकालने की अनुमति प्रदान करें। संघ ने अस्वीकार कर दिया। कठिनतम समय आ गया है। भविष्य में काम देगा अतः दूसरा पाषाण निकलवा कर उसकी मूर्ति बनवाओ। दूसरा पाषाण निकाला गया। बत्तीस-बत्तीस बैलों की जोड़ी से वह पाषाण पालीताणा लाया गया। गाँव-गाँव में इस पाषाण का प्रवेशोत्सव किया गया। उस पत्थर को गढ़कर मूर्ति बनाई गई।समराशाह ने विक्रम संवत् १३७१ में बड़े महोत्सव के साथ प्रतिष्ठा करवाई। आज भी समराशाह और उसकी पत्नी समरश्री की मूर्ति गिरिराज पर विद्यमान है। पुनः विक्रम संवत् १४५६ और १४६६ में किसी मुगल बादशाह ने मूर्ति को खंडित कर दिया, केवल सिर ही विद्यमान रहा। सौ वर्षों तक केवल मस्तक की ही पूजा होती रही। यात्रीगणों का आना-जाना बंद हो गया। कोई भूला-चूका यात्री आता और दर्शन करके चला जाता। श्रावकगण बहुत ही दु:खी और व्यथित हुए। संघ में घबराहट व्याप्त हो गई। कोई समाधान नहीं निकल रहा था। ऐसे समय में धर्मरत्नसूरिजी महाराज मारवाड़ में विचरण करते हुए संघ लेकर मेवाड़ आए। चित्तौड़गढ़ में प्रवेश किया। उस समय चित्तौड़ में तोलाशा

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