Book Title: Guru Vani Part 02
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 86
________________ ६८ पर्युषणा - तृतीय दिन गुरुवाणी-२ के लिए प्रेरित किया। कोई भी श्रावक खड़ा नहीं हुआ। गुरु महाराज ने कहा - अन्त में आप अपनी इच्छा का परिमाण तो करिए। सारी सभा सुन रही थी किन्तु कोई भी श्रोता खड़ा नहीं हुआ। उसी समय पेथड़ शाह खड़े हुए और गुरु महाराज के पास जाकर हाथ जोड़कर कहा - साहेब ! मुझे परिग्रह परिमाण करवाइए। दूसरे श्रावक लोग पेथड़ के मैले कुचैले कपड़ों को देखकर मजाक में कहा- हाँ, हाँ साहेब ! इस पेड़ को अवश्य कराइए। इतने में ही गुरु महाराज की दृष्टि पेथड़ की हस्तरेखा पर गई । गुरु महाराज ने पूछा- कितने का परिमाण करवाऊँ? पेथड़ ने कहा - बीस रुपये का। गुरु महाराज ने कहा - श्रावक को बीस रुपये का पच्चक्खाण नहीं होता है किन्तु जहाँ एक रुपया भी अंटी में न हो तो बीस रुपये भी अधिक होते हैं। पेथड़ ने कहा- तीस रुपये का करवाइए। गुरु महाराज ने कहा नहीं । खेंचते-खेंचते ५ लाख तक बात पहुँच गई। श्रावक समुदाय तो पेथड़ व आचार्य भगवन् का संवाद ही देख रहा था । सोच रहा था कि आचार्य भगवन् ने इस कंगाल में क्या देखा है? पेथड़ तो कम करने का कहता है और आचार्य बढ़ाने का कह रहे हैं? अन्त में पेथड़शाह थक गये और कहा- साहेब ! जितने का भी आप कराना चाहें प्रसन्नता से कराइए नहीं तो रहने दीजिए । आचार्य महाराज ने ५ लाख का परिग्रह परिमाण I कराया और वहाँ से विहार कर गए। माण्डवगढ़ में पेथड़ .... फेरी से काम न चलने के कारण पेथड़ ने दूसरे व्यापार का विचार किया। उस समय माण्डवगढ़ उन्नति के शिखर पर था। दोनों पिता-पुत्र ने माण्डवगढ़ की ओर प्रस्थान किया । २५ मील की सीमा में यह नगर बसा हुआ था। चारों तरफ प्राकृतिक पहाड़ थे और चारों तरफ खाईयों से यह नगर रक्षित था। उस नगर में प्रवेश करने के लिए एक ही दरवाजा था। ज्यों ही ये दोनों पिता-पुत्र दरवाजे के समीप पहुँचे और दरवाजे में घुसने लगे उसी समय उन्होंने काले नाग को आते हुए देखा । पेथड़शाह

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