Book Title: Guru Vani Part 02
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 41
________________ २३ गुरुवाणी-२ अशठता तैयारी करो, हमें इसी समय विहार करना है। आचार्य की आज्ञा प्राप्त कर शिष्यगण शीघ्रता के साथ अपना काम पूर्ण करने लगे और कमर कस कर विहार के लिए तैयार हो गये। उसी समय किसी मनुष्य के द्वारा सेठ को खबर लगी कि आचार्य महाराज तो विहार कर रहे हैं। सेठ तो एकदम घबरा गया और भागता हुआ महाराज के पास पहुंचा और पूछा - भगवान् ! अचानक ऐसी क्या बात हो गई? मेरे द्वारा क्या अपराध हो गया? मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा और मेरी इज्जत का क्या होगा? आचार्यदेव ने कहा - सेठ! मातृ देवो भव, पितृ देवो भव इस सूक्ति को तुम मानते हो? माता को घर में देवता के समान इज्जत देते हो? सेठ अत्यन्त समझदार और चतुर था। चतुर को संकेत मात्र काफी होता है। सेठ समझ गया। तत्काल ही आचार्य महाराज के सन्मुख ही माँ के पैरों में पड़कर माफी मांगने लगा। गहन पश्चात्ताप करने लगा। इस माहोल के पश्चात् आचार्य महाराज उस मन्दिर की प्रतिष्ठा कराते हैं। यदि घर में उचित व्यवहार न हो तो धर्म क्रियाएं भी सफल नहीं होती हैं। बाहर चाहे कितना भी धर्म करते हो किन्तु घर में और परिवार के सदस्यों के साथ कटु सम्बन्ध हो तो वह धर्म दिखावा मात्र है। स्वच्छ और पवित्र जीवन धर्म का मौलिक स्वरूप है। शत्रु भी कह उठे कि मेरे साथ इसका वैर विरोध अवश्य है किन्तु वह सज्जन मनुष्य है। ऐसा दम्भरहित जीवन होना चाहिए। धर्म का सम्यक् प्रकार का आचरण करने से जिस प्रकार श्रेष्ठ फल मिलता है उसी प्रकार अयोग्य रीति से धर्म का आचरण करने पर उसका फल भी कटु ही मिलता है। Wealth is lost nothing is lost. Health is lost something is lost. Charactor is lost everything is lost.

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