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गणितानुयोग प्रस्तावना
नीधम एवं लिंग का ग्रन्थ दृष्टव्य है । इसमें मुख्यतः चीन से सम्बन्धित विवरण प्राप्य है। शेष आसपास के देशों में जहाँ बौद्ध भिक्षु भारत से पहुँचे, संभव है वहाँ के देशवासियों ने बाद में उत्तरोत्तर विकास किया हो ।
७. जैन संस्कृति में भूगोल, ज्योतिष एवं खगोलादि संबन्धी गणित
जैन आगम का सिंहावलोकन :
डा० हीरालाल जैन ने पारम्परिक एवं आगमिक ज्ञान का वर्द्धमान महावीर से पूर्व के अस्तित्व का अवलोकन श्रमणों की सांस्कृतिक परम्परा में किया है। परम्परा को भाषा या विचारों के शब्दों द्वारा द्रव्यश्रुत एवं भावश्रुत रूप में निरन्तर प्रचलित किया जा सकता है। अनुमानतः "कथित पूर्व" प्राचीन श्रमण परम्परा का साहित्य रहा होगा। इस परम्परा में तीर्थंकर ऋषभनाथ (वैदिक ऋषभ ?), नेमिनाथ (वैदिक अरिष्टनेमि), एवं पार्श्वनाथ विख्यात हैं। ईसा से कुछ हजार वर्ष पहले उदित बेदिलनीय मिश्र देशीय एवं चीनी सभ्यताओं में प्राप्त गणि तीय सूत्रों का प्रयोग जैन संस्कृति में विकसित कर्म सिद्धान्त एवं विश्य संरचना में तुलनीय हैं।"
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जैनागम के चौवह पूर्व आगम के बारहवें अंग के विभाजन रूप थे । जैनागम साहित्य बारह अंगों में रचित हुआ। इसमें से बारह अंग में पांच परिकर्म (चन्द्र प्राप्ति सूर्य प्रज्ञप्ति जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति और व्याख्या प्रज्ञप्ति ) सूत्र, प्रथमानुयोग, चौदह पूर्वगत एवं पाँच चूलिकाएँ हैं। जैन वर्णमाला में ६४ अक्षर होते हैं जिनमें ३३ व्यंजन, २७ स्वर, और ४ सहायक होते है इनसे (२) १४ संचय अथवा १८४,४६ ७४, ४०,७१,७०, ५,५१,६१५ संयोगी अक्षर बनते हैं जो सम्पूर्ण श्रुत रचना करते हैं । जब इसे मध्यम पद के अक्षरों की संख्या १६,३४८, ३०७,८८८ से विभाजित किया जाता है तो जैन आगम के पदों की संख्या ११,२८३,५८,००५ प्राप्त होती है। शेष ८०१००१७५ त के उस भाग के अक्षरों की संख्या होती है जो अंगों में सम्मिलित नहीं हैं। उसे अंगबाह्य कहते हैं । इसे चौदह प्रकीर्णकों में विभाजित किया गया है ।
श्रुत
इस प्रकार श्रुत या तो अक्षरात्मक अथवा अनक्षरात्मक होता है । अनक्षरात्मक श्रुत के असंख्यात विभाग होते हैं जो असंख्यात लोक (प्रदेश बिन्दु राशि) रूप होते हैं । 4
३. ग० सा० सं०, भूमिका ।
४. गो० सा० क० श्लोक ३१६, इत्यादि ।
२. बुले० ल० मेव० सो० (१९२९), उल्लिखित ।
६. ग० सा० सं०, पृ० ६, ३५
ज्ञात है कि केवली भद्रबाहु (लग० ४वी सदी ई० पू०) तक आगम का ज्ञान श्रुत रूप में पारम्परिक रूप से दिया जाता रहा, सुनकर स्मृति में संरक्षित किया जाता रहा ।
उनके पश्चात् बारह वर्ष का लगातार दुर्भिक्ष पड़ने के पश्चात् जैन संस्कृति साहित्य को श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आम्नाय में पनपने का अवसर मिला ।
कतिपय गणितीय शब्द
विभूतिभूषण दत्त ने जैन आम्नाय के कुछ गणितीय शब्दों को एकत्रित कर उन्हें समझाने का प्रयत्न किया था। उस समय तक जैन ग्रन्थों में गुथी हुई गणित की यथासंभव भावना तक पहुँच न हो सकी थी क्योंकि अनेक ग्रन्थ प्रकाश में नहीं आए थे। अब इन पारिभाषिक शब्दों को पुनः अवलोकितकर उनके उपयोग पर एक नयी दृष्टि संभव हो सकेगी । परिकर्म (प्रा० परिकम्म) :
कहा जाता है कि कुन्दकुन्दाचार्य ( ई० ३री सदी : ?) ने प्राकृत भाषा में षट्खण्डागम के प्रथम तीन भागों पर परिकर्म नाम की बारह हजार श्लोकों में कुन्दकुन्दपुर में रचना की थी । वीरसेनाचार्य द्वारा भी परिकर्म ग्रन्थ के उल्लेख कई प्रसंगों में धवला टीका में आए हैं । परिकम्म का अर्थ विशेष प्रकार का गणित भी होता है, अथवा किसी प्रकार की गणना (संख्यान) भी होता है। (परि= चारों ओर, कम्म कर्म अथवा प्रक्रिया ) ।
महावीराचार्य ने परिकर्म व्यवहार शब्द का उपयोग एक गणित अध्याय के लिये किया है। उस समय परिकम्मा का अर्थ आठ प्रकार की गणितीय प्रक्रियाओं के लिए होता था - प्रत्युत्पन्न (गुणन), भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, सकलित, तथा स्कलित इस प्रकार हिन्दू गणित की मूलभूत प्रक्रियाएँ वर्ग एवं घन, परिकर्म में सम्मिलित हैं । चूमि में परिकर्म का अर्थ, गणित की वे मूलभूत क्रियाएँ हैं जो विज्ञान के शेष और वास्त
?. Needham, J., and Ling, W., Science and Civilization in China, vol. 3, Cambridge, 1953. २. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, भोपाल, १२६२, पृ० ५१.