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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : सूर्य का मंडल से मण्डल में संक्रमण
सूत्र १०३७
सूरस्स मण्डलाओ मण्डलांतर-संकमणं
सूर्य का एक मण्डल से दूसरे मण्डल की ओर संक्रमण३७. ५०–ता कहं ते मण्डलाओ मण्डलं संकममाणे संकममाणे ३६. प्र०—सूर्य एक मंडल से दूसरे मंडल की ओर संक्रमण
सूरिए चारं चरइ? आहिए त्ति वएज्जा, करता करता किस प्रकार की गति करता है ? कहें । उ०-तत्थ खलु इमाओ दुवे पडिवत्तीओ पण्णताओ, उ०—इस सम्बन्ध में ये दो प्रतिपत्तियाँ (मान्यताएँ) कही तं जहा
गई हैं । यथातत्थेगे एवमाहंसु--
इनमें से एक (मान्यता वालों) ने ऐसा कहा है१. ता मण्डलाओ मण्डलं संकममाणे संकममाणे सूरिए (१) सूर्य एक मंडल से दूसरे मंडल की ओर संक्रमण भेयघाएणं संकामइ, एगे एवमाहंसु
करता करता भेदघात से संक्रमण करता है। एगे पुण एवमाहंसु
एक (मान्यता व लों) ने फिर ऐसा कहा है२. ता मण्डलाओ मण्डल संकममाणे संकममाणे सूरिए (२) सूर्य एक मंडल से दूसरे मंडल की ओर संक्रमण करता कण्णकलं निव्वेढेइ एगे एवमाहंसु,
हुआ कर्णकला से मंडल को छोड़ता है। तत्थ णं जे ते एवमाहंसु
। उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं१. ता मण्डलाओ मण्डलं संकममाणे संकममाणे सूरिए (१) सूर्य एक मंडल से दूसरे मंडल की ओर संक्रमण करता भेयघाए णं संकामइ।
करता भेद (दो मंडलों के अन्तराल में) घात (गमन) से संक्रमण
करता है। तेसि णं अयं दोसे,
उनकी इस मान्यता में यह दोष है। ता जेणंतरेणं मण्डलाओ मण्डलं संकममाणे संकममाणे सूर्य एक मंडल से दूसरे मडल की ओर संक्रमण करता भेयघाएणं संकमइ–एवइयं च णं अद्धं पुरओ न करता करता भेद (दो मंडलों क अन्तराल में) घात (गमन गच्छइ, पुरओ पुरओ अगच्छमाणे मण्डलकालं परि• करने) से जितने समय में संक्रमण करता है उतने समय तक वह हवेइ । तेसि णं अयं दोसे,
आगे (अन्य मंडल में। नही जाता है। इस प्रकार आगे आगे (अन्य अन्य मंडलों में) न जाने पर (मंडलों के अन्तरालों में सूर्य की गति होते रहने से) मडलों में गति करने का काल समाप्त हो जाता है (अतः सर्वविदित दिन-रात का निश्चित प्रमाण भंग हो
जाता है।) तत्थ णं जे ते एवमाहंसु
उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं२. ता मण्डलाओ मण्डलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं (२) एक मंडल से दूसरे मंडल की ओर संक्रमण करता निवेढेइ
हुआ कर्ण (मंडल के प्रारम्भ से द्वितीय मंडल के प्रारम्भ तक) (एकेक) कला से मंडल को छोड़ता है।
१ मंडलादपरमण्डलं संक्रामन् संक्रमितुमिच्छन् सूर्यो भेदघातेन संक्रामति भेदो मंडलस्य मंडलस्यापान्तरालं तत्र घातो-गमनं, एतच्च
प्रागेवोक्तं, तेन संक्रामति, किमुक्तं भवति ? विवक्षिते मंडले सूर्येणापूरिते सति तदनन्तरमपान्तरालगमनेन द्वितीयं मंडल संक्रामति संक्रम्य च तस्मिन् मंडले चारं चरति,
-सूर्य • टीका मंडलान्मंडलं संक्रामन् संक्रमितुमिच्छन् सूर्यस्तदधिकृतं मंडलं प्रथमक्षणादूर्ध्वमारभ्य कर्ण-कलं निर्वेष्टयति मुँचति, इयमत्र भावना-"भारत ऐरावतो वा सूर्यः स्व स्व स्थाने उद्गतः सन् अपरमंडलगतं कर्ण प्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्य शनैः शनैरधिकृतं मंडल तथा कयाचनापि कलया मुञ्चन् चारं चरति" येन तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति अपरानन्तरमंडलस्यारम्भे वर्तते इति, कर्णकलमिति च क्रियाविशेषणं द्रष्टव्यं, तच्चवं भावनीय "कर्ण-अपरमंडलगतप्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्याधिकृतमंडलं प्रथमक्षणादूर्ध्व क्षणे क्षणे कलयाऽतिक्रान्तं यथा भवति तथा निर्वेष्टयतीति,
-सूर्य. टीका.