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सूत्र ६१६-६१८
तिर्यक् लोक : अन्तरद्वीप वर्णन
गणितानुयोग
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तहेव ते मणियंगावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिः उसी प्रकार 'मणिअंग' नाम के द्रुमगण भी अनेक प्रकार की णताए भूसणविहीए उववेया ।
स्वभावसिद्ध भूषण विधि से युक्त होते हैं। कुस-विकुस-विसुद्ध-रुक्खमूला-जाव-चिट्ठन्ति ।
उन वृक्षों के मूल, कुश-डाभ, विकुश-बल्वजघास रहित
होते हैं अतएव शुद्ध होते हैं। ६१७. एगुरुयए दीवे तत्थ तत्थ बहवे गेहागारा णाम दुमगणा ६१७. हे आयुष्मान् श्रमण ! एकोरुकद्वीप के अनेक स्थानों में पण्णत्ता समणाउसो!
'गृहाकार' नाम के अनेक वृक्षों के समूह कहे गये हैं । जहा से पागार-ट्टालग-चरिय-दार-गोपुर-पासायाकासतल- जिस प्रकार (१) प्राकार-नगर की चार दिवारी, (२) मंडव-एगसाल-बिसालग-तिसालग-चउरंसचउसाल गब्भघर- अट्टालक-प्राकार पर बना हुआ एक मकान, (३) चरिकामोहणघर-वलभिघर-चित्तसाल-मालय-भत्तिघर-बट्ट-तंस-चतु- प्राकार पर आठ हाथ चौड़ा मार्ग, (५) गोपुर-नगर का द्वार, रंसणंदियावत्तसंठियायतपंडुरतलमुण्डमालहम्मिय, (५) प्रासाद-राजमहल, (६) आकाशतल-चटाइयों से बनी
हुई कुटिया, (७) मण्डप-छाया के लिए कपड़े का बना हुआ तम्बू, (८) एगशाल-भवन, (6) द्वि-शाल-भवन, (१०) त्रि-शाल भवन, (११) चतुश्शाल-भवन, (१२) गर्भगृह = बीच का घर, (१३) मोहनघर=सुरतगृह, (१४) वल्लभी = बल्लियों के आधार पर बना हुआ घर, (१५) चित्रशाला, (१६) मालकगृह = मकान की छत पर बना घर, (१७) भक्तिगृह =अलग अलग घर, (१८) वृत्तगृह = गोल, (१६) त्रिकोणघर, (२०) चतुष्कोणघर, (२१) नन्द्यावर्तसंस्थितघर, (२२) पंडुरतल-सुधामयतल, (२३)
मुण्डमालहर्म्य = महल की छत पर बना हुआ बिना छत का घर । अहवा णं धवलहर-अद्धमागह-विन्भम-सेलद्धसेलसंठिय- अथवा-(२४) धवलगृह, (२५) अर्धमागधविभ्रम, (२६) कडागारटुसुविहिकोट्ठग-अणेग घरसरणलेण-आवण-विडंगजाल- (२७) अर्द्ध शैलसंस्थित =आधा पर्वत पर और आधाभूतल पर चंदणिज्जूहअपवरकदोवालि--चंदसालियरुवविभत्तिकलिता बना हुआ भवन, (२८) कूटागाराढ्यसुविहितकोष्ठक = शिखराभवणविही बहुविकप्पा ।
कार सुरचित अनेक गृह (२६) अनेकघरसरणलयन = घास के छप्पर वाले अनेक घर, (३०) आपण = दूकान, (३१) विटंक = कपोतपालि, (३२) जालवृन्द = गवाक्ष-पंक्ति, (३३) नियूह-द्वार के ऊपर के भाग में निकले हुए काष्ठ, (३४) अपवरक = शयनागार, (३५) चन्द्रशालिका= सबसे ऊपर का घर इत्यादि अनेक
प्रकार के घर हैं। तहेव ते गेहागारावि दुमगणा अणेग-बहुविविध-वीससा- उसी प्रकार गृहाकार द्र मगण भी अनेक प्रकार के स्वभावपरिणयाए, सुहारहणे महोत्ताराए, सुहनिक्खमणप्पवेसाए, सिद्ध आराम से चढ़े, उतरे, प्रवेश करे, निकले, इच्छानुसार दहरसोपाणपंतिकलिताए पइरिक्काए सुहविहाराए मणोऽणु- शयनादि करें, ऐसे सोपान पंक्ति सहित मन के अनकल विविध कूलाए भवणविहीए उववेया।
भवन विधियों से युक्त हैं। कुस-विकुस-विसुद्ध रुक्खमूला-जाव-चिट्ठन्ति ।
उन वृक्षों के मूल कुश-डाभ, विकुश-बल्बजघास रहित है, अतएव शुद्ध हैं।
"६१८. एगोरुयदीवे तत्थ तत्थ बहवे अजिंगणा णाम दुमगणा पण्णता ६१८. हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोषकद्वीप के अनेक स्थानों में समणाउसो !
'अनग्न' नाम के अनेक वृक्षों के समूह कहे गये हैं। जहा से अणेगखोमं तणुतं, कंबल-दुगुल्ल-कोसेज्ज-काल• जिस प्रकार अनेक प्रकार के (१) शरीर के अनुकूल वस्त्र, मिगपट्ट-चीणंसुय-बरणातवारवणिगय-तुआभरण-चित्तसहिणग- कम्बल, दुकूल = गौड देश के कपास से बने हुए वस्त्र, (३) कल्लाणग-भिगिणील-कज्जल-बहवण्ण-रत्त-पीत-सुक्किल- कौशेय = कृमियों के निकाले हुए तन्तुओं से बने हुए वस्त्र,