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-सूत्र १६३-१६५
तिर्यक लोक विजयद्वार
१६३. तए णं से विजए देवे तेसि सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवानं अंतिए एमट्ट सोन्चा णिसम्म हट्ठट्ठ- जाव - हियए देवणिज्जाओ अभुई, अब्भुट्टित्ता दिव्वं देवदूसजुयलं परिहेड परिहिला देवयज्जाओ पचोर, परयोरहिला उपवासभाओ पुरयमेषं वारेण निवाच्छ, निगडित जेणेव हर ए तेणेंव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हरयं अणुपदाहि करेमाणे करेमाणे पुरस्थिमेणं तोरणेणं अणुप्पविसइ अणुष्पविसिता पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरहइ, पच्चोरुहित्ता हरयं ओगाहेड, ओग हित्ता जलावगाहणं करेइ, करिता जलमज्जणं करेइ, करिता जलकिडु करेइ, करिता आयंते चोक्खे परमसूइभूए हरयाओ पच्चुत्तरह, पच्चुत्तरिता जेणामेव अभिसेयसभा तेणामेव उवागच्छ इ वागच्छता अभिसेयसमं पदाहिणं करेमाणे करेमाणे पुरत्थि मिले वारे अविस अनुप्यविसित्ता जेणेव सए मिल्लेणं सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरवासिि
-जीवा० प० ३, उ० १, सु० १४१
विजयदेवरस इंदाभिसेयं
१६४. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववरणगा देवा अभिजोगिए देव सहायेंति सद्दावित्ता एवं वयासी
"खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! विजयस्स देवस्स महत्थं महग्धं महरिहं विपुलं इंदाभिसेयं उबट्टवेह ।"
* १६५. तए णं ते अभिओगिआ देवा सामाणिय परिसोववणेह एवं वृत्ता समाणा हट्ठतु - जाव-हियया करयलपरिग्गहियं सिरसा वत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं देवा तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुगंति, पडिणित्ता उत्तर-पुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अववकमित्ता वेउध्वियसमुग्धाएणं समोहणंति समोहणिता संखेनाई जोगाई दंड निसरंति तं जहा रयणाणं जाव-रिट्ठाणं । अहा बायरे पोग्गले परिसाति, परि साडिला महा मुहमे योग्यले परियाति परिवायित्ता दोप पि समुधाएवं समोहति समोहणिता
(१) दुसहर सोणिया कलसा (२) अट्ठसहस्सं रुप्पामयाणं कलसाणं, (३) अट्ठसहस्सं मणिमत्राणं कलसाणं,
गणितानुयोग १७३
१६३. तत्पश्चात् वह विजयदेव सामानिक परिषदोपगत देवों के इस हितावह अर्थ को सुनकर और मन में निश्चय कर हृष्ट-तुष्ट यावत्- हृदय प्रफुल्लित होता हुआ देवशय्या से उठा, उठकर दिव्य देवदूष्य युगल को पहना पहनकर देवशय्या से नीचे उतरा उतर कर उप सभा के पूर्व दिनावर्ती द्वार से बाहर निकला, निकलकर जहाँ हृद था, वहाँ गया, वहाँ जाकर हद की बारंबार प्रदक्षिणा करता हुआ पूर्व तोरण द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ, अनुप्रवेश करके पूर्वदिशा भाग में स्थित त्रिसोपान पंक्ति से नीचे उतरा, उतरकर हृद में प्रविष्ट हुआ, प्रविष्ट होकर जलावगाहनस्नान किया, स्नान करके शरीर का जलमर्दन किया, मर्दन करके जलक्रीडा की, जलक्रीड़ा करके आचमन द्वारा स्वच्छ, परमशुचिभूत होकर हद से बाहर निकला, बाहर निकल कर जहाँ अभिषेक सभा थी, वहाँ आया, वहाँ आकर अभिषेक सभा की पुनः पुनः प्रदक्षिणा करता हुआ पूर्व दिशा के द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ, प्रवेश करके जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया और आकर उस श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ गया ।
बिजयदेव का इन्द्राभिषेक
१६४ तदनन्तर उस विजयदेव के सामानिक परिषदोपन्न देवों ने आभियोगिक देवों को बुलाया, और बुलाकर उनसे इस प्रकार
कहा
"हे देवानुप्रियो ! तुम लोग अतिशीघ्र विजयदेव का इन्द्राभिषेक करने के लिये महान अर्थवाली, महा मूल्यवान, महापुरुषों के योग्य, विपुल ऐसी इन्द्राभिषेकयोग्य सामग्री उपस्थित करो । १९५. तत्पश्चात् सामानिक परिषदोपपन्न देवों के द्वारा आज्ञापित वे आभियोगिक देव उन सामानिक देवों के आदेश को सुनकर हृष्ट-तुष्ट - यावत् — उल्लसित होकर दोनों हाथों को जोड़ मस्तक पर आवर्त करके अंजलिपूर्वक "हे देव ! हमें आपकी आज्ञा प्रमाण है, कहकर विनयपूर्वक आज्ञा वचनों को सुनते हैं, सुनकर उत्तरपूर्वदि में गये वहां जाकर मंत्रिय समुद्धात द्वारा कुणा विकुर्वणा की, विकुर्वणा करके संख्यात योजन प्रमाण दंडाकार के रूप में आत्म-प्रदेशों को बाहर निकाला, यथा-रत्नों के यावत्रिष्टों के यथा बाहर असार पुद्गलों को अलग किया दूर हटाया दूर हटाकर यथा सूक्ष्म सारभूत पुद्गलों को ग्रहण किया, ग्रहण करके पुनः दूसरी बार दुवारा भी वैत्रिय समुद्घात किया, समुद्घात करके—
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( १ ) एक हजार आठ स्वर्ण के कलशों की, (२) एक हजार आठ चाँदी के कलशों की, (३) एक हजार आठ मणियों के कलशो की,