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लोक-प्रज्ञप्ति
द्रव्यलोक
प० अग्गेयो णं भंते ! दिसा १. किमादीया,
२. किं पवहा, ३. कतिपएसादीया, ४. कतिपएस-वित्थिण्णा, ५. कतिपदेसिया, ६. किं पज्जवसिया,
७. कि संठिया पन्नत्ता? उ० गोयमा ! अग्गेयी णं दिसा १. रुयगादीया,
२. रुयगप्पवहा, ३. एगपएसादीया, ४. एगपएस-वित्थिण्णा, अणुत्तरा,
प्र० भगवन् ! १. आग्नेयी दिशा में क्या है ? .
२. वह कहाँ से निकली है ? ३. उसके आदि में कितने प्रदेश हैं ? ४. उत्तरोत्तर कितने प्रदेशों की वृद्धि होती है ? ५. उसके कितने प्रदेश हैं ? ६. उसका अन्त कहाँ होता है ?
७. और उसका संस्थान कैसा कहा गया है ? उ० गौतम ! आग्नेयी दिशा के १. आदि में रुचक प्रदेशं है,
२. वह रुचक्र प्रदेशों से निकली है, ३. उसके आदि में एक प्रदेश है, ४. वह (अन्त तक) एक प्रदेश के विस्तार वाली है (अतएव)
उत्तरोत्तर वृद्धि रहित हैं, ५. लोक की अपेक्षा वह असंख्यप्रदेशवाली है और अलोक
की अपेक्षा अनन्त प्रदेशवाली है, ६. लोक की अपेक्षा वह सादि-सान्त है और अलोक की
अपेक्षा सादि-अनन्त है, ७. और उसका संस्थान टूटी हुई मोतियों की माला जैसा
कहा गया है। याम्या दिशा इन्द्रा जैसी है और नैऋति आग्नेयी जैसी है। इस प्रकार जैसी इन्द्रा दिशा है वैसी ही चारों दिशाएँ हैं। जैसी आग्नेयी विदिशा है वैसी ही चारों विदिशाएँ हैं।
५. लोगं पडुच्च असंखेज्जपएसिया, अलोगं पडुच्च
अणंतपएसिया, ६. लोगं पडुच्च सादीया सपज्जवसिया, अलोगं पडुच्च ___सादीया अपज्जवसिया, ७. छिन्नमुत्तावलीसंठिया पन्नत्ता।
जमा जहा इंदा। नेरती जहा अग्गेयो। एवं जहा इंदा तहा दिसाओ चत्तारि वि। जहा अग्गेयी तहा चत्तारि वि विदिसाओ।
प० विमला गं भंते ! दिसा किमादिया (जाव)
कि संठिया पन्नत्ता? उ० गोयमा ! १. विमला गं दिसा रुयगादीया, २. रुय गप्पवहा, ३. चउप्पएसादीया, ४. दुपदेस-वित्थिण्णा, अणुत्तरा,
प्र० भगवन् ! १-६, विमला दिशा के आदि में क्या है ? (यावत्)
७. उसका संस्थान कैसा कहा गया है ? उ० गौतम ! १. विमला दिशा के आदि में रुचक प्रदेश है,
२. वह रुचक प्रदेशों से निकली है, ३. उसके आदि में चार रुचक प्रदेश हैं, ४. वह अन्त तक दो प्रदेशों के विस्तारवाली है अतएव
उत्तरोत्तर वृद्धि रहित है, ५-६. लोक की अपेक्षा वह असंख्यप्रदेशवाली है शेष
आग्नेयी विदिशा जैसी है; विशेष उसका संस्थान रुचक प्रदेश जैसा कहा गया है। इसी प्रकार तमा दिशा भी है।
५-६. लोगं पडुच्च असंखेज्जपएसिया सेसं जहा
अग्गेयोए। नवरं रुयगसंठिया पन्नत्ता।
एवं तमा वि।
-भग० स० १३, उ० ४, सु० १६-२२ ।
१. महा० वि० की प्रति में मूल पाठ इस प्रकार है-“विमला गं भंते ! दिसा किमादिया० पुच्छा"।