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गागर में सागर
संस्कृत है: परन्तु श्री जिन तारणतरणस्वामी की भाषा तो बड़ी ही अटपटी है, अतः इनको समझना आसान नहीं है तथा इनके ग्रन्थों पर किसी समर्थ प्राचार्यों या विशिष्ट विद्वानों की कोई विस्तृत टीकायें भी नहीं हैं । स्वर्गीय ब्रह्मचारी श्री शीतलप्रसादजी ने जो प्रयास इस क्षेत्र में किया है, वह स्तुत्य है; परन्तु वह बहुत संक्षिप्त सारांश या भावार्थ के रूप में ही है । स्वल्प मतियों के हिसाब से उसमें अब भी विस्तार की बहुत गुंजाइश है।
डॉ० भारिल्ल के द्वारा हुये प्रस्तुत प्रवचनों को देखने से ऐसा लगता है कि इस बड़ी भारी कमी की पूर्ति बहुत कुछ अंशों में इसप्रकार के प्रवचनों से संभव है; अतः ऐसे सरल, सुबोध प्रवचनों का अधिक से अधिक प्रकाशन होना चाहिये, ताकि सामान्यजन लाभान्वित हो सकें।
डॉ० भारिल्ल के प्रवचनों को पढ़कर या सुनकर साधारण से साधारण व्यक्ति तारणस्वामी के भावों तक पहुंच सकता है। उनके प्रवचनों की यह खास विशेषता है कि उनका कोई भी श्रोता हताश होकर खाली हाथ नहीं लौट सकता। कठिन से कठिन विषयों के प्रवचनों में भी कोई थकान या ऊब अनुभव नहीं कर सकता।
"अाज सारे भारत में ऐसा कौन तत्त्वरसिक है, जो डॉ० भारिल्ल की प्रवचनशैली से परिचित न हो। उनकी लेखनशैली तो सशक्त है ही, प्रवचन शैली भी ऐसी है कि जिसमें आबाल-बद्ध, पढ़-अनपढ़ सभी एकरस होकर उनके प्रवचनों से लाभान्वित होते हैं ।
वे इस मोहक, प्रभावक और रहस्योद्घाटक शैली के कारण इतने लोकप्रिय हुये हैं कि जो एक बार उन्हें सुन लेता है, वह बार-बार सुनना चाहता है।
जहाँ उनमें ऐसी क्षमता है कि वे एक ही व्याख्यान को कोमा, फुलस्टाप सहित वैसा का वैसा रिपीट कर सकते हैं, पुनरावृत्ति कर सकते हैं। वहीं उनमें ऐसी भी क्षमता है कि वे एक ही विषय पर २५ प्रवचन भी करें तो भी विषयान्तर हुये विना पुनरावृत्ति नहीं होगी। यही कारण है कि उन्हें सुनने के लिए विदेशों से भी ग्रामंत्रण प्राते हैं। गत वर्ष वे ब्रिटेन, अमेरिका ग्रादि अनेक यूरोपीय देशों में जाकर आये हैं। इस वर्ष भी उनका पुन: दो माह का विदेश यात्रा का कार्यक्रम है।