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दौलतरामजी कहते हैं
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गाथा ८६७ पर प्रवचन
"लाख बात की बात यही निश्चय उर लाश्रो । तोरि सकल जग दंद फंद निज श्रातम ध्याश्री ॥
भाई ! लाख बात की एक बात यह है कि जगत के संपूर्ण दंद- फंद छोड़कर एक निज आत्मा का ही ध्यान करो इस बात को हृदय अच्छी तरह धारण कर लो ।"
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समयसार में आत्मा को ज्ञानमात्र कहा है और यहाँ ज्ञानसमुच्चयसार कहा है । समयसार में "ज्ञानमात्र" शब्द से अकेला ज्ञानवाला आत्मा नहीं लिया है, अपितु अनन्त गुणों का अखण्ड पिण्ड भगवान आत्मा ही "ज्ञानमात्र " शब्द से कहा गया है । यहाँ भी "ज्ञानसमुच्चयसार" शब्द से अनन्त धर्मात्मक आत्मा ही लिया गया है ।
ज्ञानमात्र में "मात्र" शब्द प्रानन्दादि गुरणों के निषेध के लिए नहीं, ग्रपितु परपदार्थों एवं रागादि विकारों के निषेध के लिए लिया गया है । वहाँ जो कार्य "मात्र" शब्द से लिया गया है, यहाँ वह कार्य "सार" शब्द से लिया गया है । सार अर्थात् पर से भिन्न, विकार से रहित, अनन्त गुणों का अखण्ड पिण्ड निज भगवान आत्मा ही ज्ञानसमुच्चयसार है, यह ज्ञानस्वभावी ज्ञानसमुच्चयसार ही ध्यान का ध्येय है, श्रद्धान का श्रद्धय है एवं परमजान का ज्ञेय है ।
ज्ञानसमुच्चयसार माने भगवान आत्मा । ज्ञानसमुच्चयसाररूप निज भगवान आत्मा का कथन करनेवाला होने से इस ग्रन्थ को भी ज्ञानसमुच्चयसार कहा गया है । इस नामकरण में भी कितनी गहराई है ! ज्ञानियों की हर बात में गहराई होती है ।
प्रश्न :- यहाँ ज्ञानसमुच्चयसार का अर्थ त्रिकाली ध्रुव भगवान ग्रात्मा बता रहे हैं और पहले समस्त ज्ञान का सार जिनवाणी का सार बताया था- दोनों में कौन सा अर्थ सही है ?
उत्तर :- भाई ! दोनों ही सही हैं। जिसप्रकार समयसार का अर्थ शुद्धात्मा भी है और शुद्धात्मा का प्रतिपादक ग्रन्थ भी । उसी प्रकार शुद्धात्मा का नाम भी ज्ञानसमुच्चयसार है और शुद्धात्मा के प्रतिपादक इस ग्रन्थ का नाम भी ज्ञानसमुच्चयसार है । द्वादशांग का प्रतिपाद्य भी एक शुद्धात्मा ही है; अतः यह ग्रन्थ द्वादशांग का सार भी है ।
प्रत्येक बात को अपेक्षा मे समझो तो सब समझ में आ जायगा, कोई परेशानी नहीं होगी ।
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