Book Title: Gagar me Sagar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 55
________________ गागर में सागर आगे तारणस्वामी कहते हैं कि यह ज्ञानसमुच्चयसाररूप भगवान आत्मा ज्ञानस्वभावी है। ज्ञानस्वभावी है अर्थात इसका स्वभाव जानना-देखना मात्र है, पर में कुछ करना इसका स्वभाव नहीं है । अनादिकाल से यह आत्मा अपने ज्ञानस्वभाव को छोड़कर पर के कर्तृत्व के विकल्पों में ही उलझा है। अतः यहाँ कहा गया है कि भगवान तेरा स्वभाव तो मात्र जानने-देखने का है, तू इसे छोड़कर क्यों दुखी हो रहा है ? ____ अपने अज्ञान से यह आत्मा आचार्यों की भाषा में भी कर्तृत्व खोज लेता है। किसी साधारण व्यक्ति ने किसी ज्ञानी महापुरुष से कहा :"आप सावधान हो जाइये, कुछ लोग आपको मारने आ रहे हैं।" ज्ञानी ने सहज भाव में उत्तर दिया : "पाने दीजिए, कोई चिन्ता की बात नहीं। हम उन्हें भी देख • लेंगे।" महापुरुष के इस कथन का सामान्य लोग तो यही अर्थ लगायेंगे कि यह कह रहे हैं कि हम उन्हें भी देख लेंगे अर्थात् हम उनसे भी निपट लेंगे, हम उन्हें ऐसा उत्तर देंगे कि जिन्दगीभर याद रखेंगे, हम भी ईंट का जवाब पत्थर से देना जानते हैं । तात्पर्य यह है कि ये महापुरुष भी लड़ने-मरने को तैयार हैं, मरने-मारने पर उतारू हैं। पर उन ज्ञानी महापुरुष का तो मात्र इतना कहना था कि जब हमारा स्वभाव ज्ञाता-दृष्टा है, तो जो भी परिस्थिति आवेगी, हम उसे भी सहजभाव से जान लेंगे, उस पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करेंगे। जिसप्रकार पुण्योदय से प्राप्त अनुकूल संयोगों को जान लेते हैं, उसीप्रकार पापोदय से प्राप्त प्रतिकूल संयोगों को भी जान लेंगे। अनुकूल संयोगों में प्रसन्न और प्रतिकूल संयोगों में अप्रसन्न होना हमारा स्वभाव नहीं है, यदि कमजोरी के कारण कदाचित् ऐसा होता भी है तो वह हमारी भूल ही होगी। पर ज्ञानी के इस आशय को कौन समझता है ? जगतजन तो उनके "देख मेंगे" शब्द का अर्थ 'लड़ने को तैयार हैं' ही समझते हैं । जानी के हदर को समझने के लिए उन जैसी गहराई चाहिए, अन्यथा अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104