Book Title: Gagar me Sagar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 61
________________ गागर में सागर यह मिथ्यात्व का ही तो जोर है कि प्राचार्यदेव अपने को जानने के लिए पर मे उपयोग हटाने को कहते हैं तो इसे जान का पर-प्रकाशक स्वभाव याद आता है; पर 'ग्रात्मा का स्वभाव स्व-प्रकाशक भी है' - यह कभी याद भी नहीं आता। यदि कोई प्रात्मा के स्व-प्रकाशक स्वभाव की बात सुनाये तो उदास मन से सुन लेता है, उस पर गहराई से विचार हो नहीं करता। यदि गहराई में विचार करे तो समझ में पा सकता है, सही निर्णय भी हो सकता है; पर गहराई में विचार करे, तव न ? पर में अपनेपन की बुद्धि और राग अज्ञानी को मही निर्णय नहीं । करने देते, सही दिशा में सोचने भी नहीं देते । एक लड़का किसी की घड़ी चुराकर भागा जा रहा था। उसी के पीछे भीड़ भी उसे पकड़ने के लिए दौड़ रही थी। जव आपने देखा कि चोर आपके सामने से ही भागा जा रहा है, तो आपने शीघ्रता से निर्णय लिया कि उसे पकड़कर भीड़ के हवाले कर देना चाहिये। आप तत्काल दौड़ पड़े और उसे पकड़ लिया; पर आप क्या देखते हैं कि जो घड़ी चुराकर भागा जा रहा है, वह तो प्रापका ही वेटा है। बस, फिर क्या था ? आप तत्काल ही अपना निर्णय बदल देते हैं, उसे छोड़ देते हैं । उमे भीड़ से बचाने के भी प्रयत्न में जुट जाते हैं। अब आप ही बताइये कि ज्ञान के सहज निर्णय को किसने बदला? वेटे (चौर) में अपनत्व ने, बेटे (चोर) के प्रति राग ने । पर में यह अपनत्व, पर के प्रति यह राग ही सही निर्णय में सबसे बड़ी बाधा है। प्राचार्यदेव कहते हैं कि जबतक पर में अपनत्व है, राग है; तबतक यदि उसे जानने जानोगे तो अपना माने विना भी न रहोगे, उससे राग हये विना भी न रहेगा। अतः भला इसी में है कि उठायो परपदार्थों पर मे दृष्टि, छोड़ो उन्हें जानने का मोह, तोड़ो उन्हें जानने का राग; बस एकमात्र अपने को ही जानो, अपने में ही जम जाग्रो, अपने में ही रम जायो- इसी में भला है। इस मंगल अवसर पर पर-प्रकाशक म्वभाव को याद मत करो । बस यही याद रखो कि जानने योग्य, मानने योग्य, अपनाने योग्य, जमने योग्य, रमने योग्य वस एक निज भगवान प्रात्मा ही है। घड़ी दो घड़ी ऐसा करके तो देखो, अतीन्द्रिय आनन्द प्रगट होता है या नहीं? अरे भाई ! एक बार यदि ऐसा कर सके तो निहाल हो जामोगे।

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