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भगवान महावीर और उनकी अहिंसा
का बारीकी से अध्ययन करना होगा; ऊपर-ऊपर से देखने से काम नहीं चलेगा
।
महावीर भारतीय जनता के अन्तर में समाहित हो गये हैं । भारतीय जनता पर उनकी पकड़ बहुत गहरी है ।
भाई ! मृत्यु विनाश हो सकती है; हत्या नहीं, हिंसा नहीं सरकारी कानून भी इस बात को स्वीकार करता है । किसी व्यक्ति ने किसी को जान से मारने के इरादे से गोली चला दी, पर भाग्य से यदि वह न मरे, बच भी जावे; तथापि गोली मारनेवाला तो हत्यारा हो ही जाता है; पर बचाने के अभिप्राय से ऑपरेशन करनेवाले डाक्टर से चाहे मरीज ऑपरेशन की टेबल पर ही क्यों न मर जावे; पर डॉक्टर हत्यारा नहीं कहा जाता, नहीं माना जाता ।
यदि मृत्यु को ही हिंसा माना जायगा तो फिर डॉक्टर को हिंसक तथा मारने के इरादे से गोली चलानेवाले को हिस्य व्यक्ति के न मरने पर अहिंसक मानना होगा, जो न तो उचित ही है और न उसे अहिंसक माना ही जाता है । इसका अभिप्राय यही है कि हिंसा का संबंध मृत्यु के होने या न होने से नहीं है, हिंसकभावों के सद्भाव से है ।
मान लो, मैं किसी स्थान पर इसीप्रकार व्याख्यान दे रहा हूँ | सामने से किसी ने पत्थर मारा, वह पत्थर मेरे कान के पास से सनसनाता हुआ निकल गया ।
मैंने उससे कहा :- “भाई ! यह क्या करते हो, अभी मेरा माथा फूट जाता तो.......?”
वह अकड़कर कहने लगा :- "फूटा तो नहीं; फूट जाता, तब "1"
कहते'
मैंने समझाते हुए कहा :- "भाई ! तब क्या कहते ? तब तो अस्पताल भागते ।"
भाई ! अज्ञानी समझते हैं कि हिंसा तब होती जब माथा फूट जाता; पर मैं आप से ही पूछता हूँ कि क्या हिंसा मेरे माथे में भरी है, जो उसके फूटने पर निकलती ? हिंसा मेरे माथे में उत्पन्न होना थी या उसके हृदय में उत्पन्न हो गई ? हिंसा तो उसके हृदय में उसी समय उत्पन्न हो गई थी, जब उसने मारने के लिए पत्थर उठाया ही था ।