Book Title: Gagar me Sagar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 63
________________ गागर में मागर ६३ समयसार की १४४ वीं गाथा में भी कहा गया है :"सम्मदंसरगणारणं एसो लहदि ति गवरि ववदेसं । सम्वरणयपक्खरहिवो भसिदो जो सो समयसारो॥ जो सर्व नयपक्षों से रहित कहा गया है, वह भगवान आत्मा ही समयसार है और उसी को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र संज्ञा हैं।" निज भगवान प्रात्मा को जानना ही समयसार है, मोक्षमार्ग है - यहाँ यह कहा गया है । लोग पूछते हैं कि आपका यह समयसार, यह ज्ञानसमुच्चयसार; यह मोक्षमार्ग- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मात्र जैनियों के लिए ही है या प्रजन लोग भी इसका लाभ उठा सकते हैं ? भाई ! न यह जैनियों के लिए है, न अजैनियों के लिए; यह तो सभी आत्माओं के लिए है। भगवान आत्मा न जैनी है, न अजैनी है । यह समयसार, यह ज्ञानसमुच्चयसार, यह मोक्षमार्ग, यह सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र सब एक भगवान आत्मा के लिए ही है। ___भाई ! सच्चा जैनी तो वही है, जो इस भगवान आत्मा को जाने, पहिचाने, इसी में जम जाये, रम जाये । शेप तो सब नाममात्र के जैन हैं। मैं तो कहता हूँ कि वे पशु-पक्षी भी जैन हैं, जो भगवान आत्मा को जानते हैं, पहिचानते हैं, भगवान आत्मा की आराधना करते हैं । पशुओं में सम्यग्दृष्टि और अणुव्रती भी होते हैं। उन सम्यग्दृष्टि और अणुव्रतियों को भी पाप अजन कहेंगे क्या ? जैन कुल में पैदा हो जाने मात्र से कोई जैन नहीं हो जाता, समयसार या ज्ञानसमुच्चयसार का अधिकारी नहीं हो जाता ।। भाई ! जबतक आत्मा का अनुभव नहीं होता, तबतक हम सब भी अर्जन ही हैं, भले ही अपने को जैन मानते रहें । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए, भगवान प्रात्मा के दर्शन के लिए जन-अर्जन का कोई सवाल ही नहीं है। ऐसी भेद की बातें वे ही चलाते हैं, जिन्हें भगवान आत्मा की खबर नहीं है। इसीप्रकार का प्रश्न लगभग २५-२६ वर्ष पूर्व मुझमे विदिशा में भी किया गया था, तव मैंने कहा कि भाई ! मम्यग्दर्शन तो पशुओं को भी होता है । क्या आपने जिनागम में यह नहीं पढ़ा कि भगवान महावीर के बीव ने शेर की पर्याय में एवं भगवान पार्श्वनाथ के जीव ने हाथी की पर्याय में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की थी।

Loading...

Page Navigation
1 ... 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104