Book Title: Gagar me Sagar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 88
________________ भगवान महावीर और उनकी ग्रहिसा हिंसा हो, बुरा ही । ऐसा नहीं है कि अपनों के प्रति होनेवाला राग अच्छा हो और परायों के प्रति होनेवाला राग बुरा हो अथवा अच्छे लोगों के प्रति होनेवाला राग अच्छा हो और बुरे लोगों के प्रति होने वाला राग बुरा हो । अच्छे लोगों के प्रति भी किया गया राग तो हिंसा होने से बुरा ही है । ८८ भाई ! इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। भगवान महावीर की यह अद्भुत बात जैनदर्शन का अनोखा अनुसंधान है । जबतक इस बात को गहराई से नहीं समझा जायेगा, तबतक महावीर की अहिंसा समझ में आना संभव नहीं है । भाई ! भगवान महावीर ने रागादिभावों की उत्पत्ति मात्र को हिंसा बताकर एक अद्भुत रहस्य का उद्घाटन किया है। अपनी पुरानी मान्यताओं को एक ओर रखकर पवित्र हृदय से यदि समझने का प्रयास किया जाय तो इस अद्भुत रहस्य को भी समझा जा सकता है, पाया जा सकता है, अपनाया जा सकता है और जीवन में जिया भी जा सकता है । यदि हम यह कर सके तो सहज मुख-शान्ति को भी सहज ही उपलब्ध कर लेंगे । इसमें कोई सन्देह नहीं । राग के अतिरिक्त द्वेषादि के कारण भी जो हिंसा होती देखी जाती है, उसके भी मूल में जाकर देखें तो उसका कारण भी राग ही दृष्टिगोचर होगा । हम इस बात पर गहराई से विचार करें कि जिस द्वेष के कारण यह द्रव्यहिंसा हुई है, वह द्वेष किस कारण से उत्पन्न हुआ था; तो स्पष्ट प्रतीत होगा कि जिस व्यक्ति मे हमें राग था, उसके प्रति असद् व्यवहार के कारण अथवा जिस वस्तु से हमें अनुराग था, उस वस्तु की प्राप्ति में बाधक होने के कारण ही वह द्वेष उत्पन्न हुआ था । यदि कोई व्यक्ति हमारे परोपकारी गुरु की निन्दा करता है या हम पर सर्वस्व लुटानेवाले माँ-बाप से प्रसद्व्यवहार करता है तो उस व्यक्ति से हमें सहज ही द्वेषभाव हो जाता है । यदि उस व्यक्ति के प्रति हम से कोई हिंसात्मक व्यवहार होता है तो उसे हम द्वेषमूलक हिंसा कहेंगे, पर गहराई में जाकर विचार करें तो स्पष्ट ही प्रतीत होगा कि हमारे इस हिंसात्मक व्यवहार के पीछे वह राग ही कार्य कर रहा है, जो हमारे हृदय में हमारे गुरु या माता-पिता के प्रति विद्यमान है ।

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