Book Title: Gagar me Sagar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 59
________________ गागर में सागर ५६ पर बात यह है कि बहु के पास लुटने के लिए बहुत कुछ है और अम्माजी के पास कुछ नहीं है । सवाल ग्रावश्यकता का नहीं, जीवन सुरक्षा का भी नहीं, बात कुछ और ही है । सास को डर लगता है कि मन्दिर में बहू को अकेली पाकर कहीं कोई उसके विरुद्ध भड़का न दे, ग्रतः सास उसे समाज के सामने एक मिनट भी अकेली नहीं छोड़ना चाहती है; पर अम्माजी को भड़काने का कोई भय नहीं है, क्योंकि एक तो ग्रम्माजी भड़ककर करेंगी क्या और जायेंगी कहाँ ? दूसरे, अम्माजी तो ग्रव भडकने वालों में नहीं, भड़काने वालों में हो गयी हैं, उन्हें कोई क्या भड़कायेगा, वे तो दुनिया को भड़का सकती हैं । भाई ! यह जगत बहुत विचित्र है । इसकी लीला समझना कोई ग्रासान काम नहीं है, उसे समझने की ग्रावश्यकता भी नहीं है । आत्मा के हित के लिए तो एक भगवान श्रात्मा का जानना ही पर्याप्त है । मैंने उन्हें समझाते हुए कहा : "भाईसाहब ! मुझे तो कोई एतराज नहीं है, पर बात यह है कि यदि मारे मोहल्ले की माताजी मेरे साथ हो गयीं तो फिर मेरा क्या होगा - ग्रापने यह भी सोचा या नहीं ? ग्रतः मैं अपने साथ ग्राप सबको ले चल सकता हूँ, अकेली माताजी को नहीं ।" वे नाराज से होकर चले गये; पर ग्राप ही बताइये, मैं क्या कर सकता था ? भाई ! जिसप्रकार नई बहू को यहाँ वहाँ जाने की मनाई है, पर बड़ी-बूढ़ी माता-वहिनों को नहीं; उसीप्रकार रागी जीवों को पर के जानने में ही लगे रहने का निषेध है, पर वीतरागियों को नहीं । वोतरागी भगवान पर को जानते तो हैं, पर वे उनमें उलझते नहीं हैं, ग्रटकते नहीं, भटकते भी नहीं । ग्रतः उनका पर को जानना सहज है, पर रागी जीव जिसे जानते हैं, उसी में ग्रटक जाते हैं, उसी में उलझ जाते हैं, ज्ञानी तो भटक भी जाते हैं । अत: उन्हें समझाते हुए प्राचार्यदेव कहते हैं कि भाई ! पर को | जानने के मोह को छोड़ो, पर को जानने के लोभ को छोड़ो | भाई ! स्व-पर को जानना तो ग्रात्मा का स्वभाव है । पर ग्रनादिकाल से हमने पर को ही जाना, अपने ग्रात्मा को नहीं जाना । इस भूल

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