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गागर मं मागर
उत्तर :- यह तो हम ठीक ही कहते हैं, क्योंकि यदि अपने को जान लिया होता तो इस संसार में न भटकते, अनन्तदुखी न रहते, अनंतसुखी हो गये होते। ___भाई ! यह पर को जानने का निषेध नहीं, अपने को जानने की प्रेरणा है । अल्पज्ञ प्राणी एक समय में एक को ही जान सफता है, अत: जबतक पर को जानने में लगे रहोगे, तबतक अपने को न जान सकोगे। अपने को जानना है तो पर को जानने का लोभ छोड़ना ही होगा।
प्रश्न :- पर को जानना बन्द करेंगे तो पर को जानने का जो अात्मा का स्वभाव है, उसका क्या होगा ? तथा केवली भगवान तो स्व-पर को एकसाथ जानते हैं ।
उत्तर :- अरे भाई ! अनन्तकाल से अपने को नहीं जाना तो क्या प्रात्मा का स्व-प्रकाशक स्वभाव समाप्त हो गया? नहीं; तो फिर एक क्षण यदि पर को नहीं जानेगा तो प्रात्मा का पर-प्रकाशक स्वभाव कैसे समाप्त हो जावेगा?
प्रात्मा का स्वभाव स्व-परप्रकाशक है। न अकेला स्व-प्रकाशक, न अकला पर-प्रकाशक ।
स्व-परप्रकाशक स्वभाव का धनी यह भगवान आत्मा जब पर्याय में भी भगवान बन जाता है, तब सबको एकसाथ जानने लगता है। अत: जिसका पर को जानना सबके जानने में बाधक नहीं है, उसे पर के जानने से मना नहीं किया जाता, पर जिसका पंर को जानना स्व के जानने में बाधक है, उसे पर मे उपयोग हटाकर स्व में लगाने की प्रेरणा दी. जाती है।
भगवान का ज्ञान पर को जानने पर भी उसमें अटकता नहीं है, उलझना नहीं है और हम जिस पर को जानने जाते हैं, उसी में अटक जाते हैं, उसी में उलझ जाते हैं । .पर को जानने में दोष नहीं; पर पर में अटकने में, उलझने में तो हानि है ही।
पर को जानने में जो अटकता नहीं है, भटकता नहीं है, उसे पर को जानने में कोई हानि नहीं है। भटकना रास्ता भूल जाने को कहते हैं और अटकना रास्ते में कहीं रुक जाने को कहते हैं, उलझ जाने को कहते हैं। भटकना श्रद्धा का दोष है और अटकना चारित्र की कमजोरी है।