Book Title: Gagar me Sagar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 41
________________ ज्ञानसमुच्चयसार गाथा ७६ पर प्रवचन (मंगलाचरण ) जिनका परम पावन चरित जलनिधि समान अपार है । जिनके गुरणों के कथन में गणधर न पावें पार है । बस वीतराग - विज्ञान ही जिनके कथन का सार है उन सर्वदर्शी सन्मति को वन्दना शत बार है ॥ यह "ज्ञानसमुच्चयसार " नामक ग्रन्थ है । अब से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व तारणस्वामी ने इसकी रचना की थी। आज इसकी ७६वीं गाथा पर व्याख्यान करेंगे। इस ७६वीं गाथा में भेदविज्ञान की मूल बात है । यह गाथा भी बहुत ही महत्त्व की एवं अत्यन्त उपयोगी है । वैसे तो संपूर्ण ग्रन्थ ही बहुत बढ़िया है, पर पाँच दिन में सब तो पढ़ा नहीं जा सकता है, अतः कुछ महत्त्वपूर्ण गाथाएँ छाँट-छाँट कर ले रहे हैं । प्रश्न :- जब सभी गाथाएँ एक से एक बढ़कर हैं तो फिर आरंभ से ही क्यों नहीं लेते, बीच-बीच में से छाँट कर क्यों लेते हैं ? उत्तर :- भाई ! आप ठीक कहते हैं, स्वाध्याय तो आद्योपान्त ही करना चाहिए; पर हम तो मात्र पाँच दिन के लिए ही आए हैं । यदि आदि से आरंभ करेंगे तो मंगलाचरण ही पूरा नहीं हो पावेगा । हमने तो यहाँ आकर भी इसका स्वाध्याय भी प्रारंभ से ही आरंभ किया है और अन्त तक पूरा करके ही जावेंगे, पर सभा में तो आद्योपान्त पढ़ा नहीं जा सकता है; अतः भेदविज्ञानमूलक गाथाएँ ही आपके सामने प्रस्तुत कर रहे हैं । वैसे तो इस ग्रन्थ की कोई भी गाथा उठा लो, उसमें आत्मा की बात अवश्य मिलेगी; पर जो गाथाएँ श्रात्मा को सीधा स्पर्श करती हैं, मूल प्रयोजन को सिद्ध करनेवाली होने से उन्हीं गाथाओं को लेने का विकल्प है । मिले सब लोगों को इस ग्रन्थ का आद्योपान्त स्वाध्याय करने की प्रेरणा - इसी पावन भावना से चुन-चुन कर गाथाएँ ली जा रही हैं, कोई और प्रयोजन नहीं है । -

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