Book Title: Gagar me Sagar
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 49
________________ गागर में मागर ४६ Accomoc जैसी इस लौकिक पर्याय की प्रशंसा सुहाती है, वैसी प्रशंसा भगवान पात्मा की नहीं सुहाती- इससे प्रतीत होता है कि जैसी आत्मबुद्धि एकत्वबुद्धि, ममत्वबुद्धि, अहंबुद्धि इस पर्याय में है, देह में है, मान-बड़ाई में है; वैसी आत्मबुद्धि, अहंबुद्धि भगवान आत्मा में नहीं है। यही कारण है कि करुणासागर प्राचार्यदेव बार-बार याद दिलाते हैं कि भाई ! बारम्बार ऐसा विचार कर : मैं हूँ वही शुद्धास्मा, चैतन्य का मार्तण्ड हूँ। पानन्द का रसकंद है, मैं ज्ञान का घनपिण्ड है। मैं ध्येय हूँ, श्रद्धेय हूँ, मैं ज्ञेय हूँ, मैं ज्ञान हूँ। बस एक ज्ञायकभाव है, मैं मैं स्वयं भगवान हैं। बारम्बार ऐसा विचार करने पर तुझे यह प्रतीति जगेगी कि वास्तव में अनन्त शक्तियों का संग्रहालय भगवान आत्मा मैं ही हूँ। भाई ! यह आत्मा की चर्चा तेरा अभिनन्दन समारोह ही है । तु इसमें रस ले, भरपूर रस ले । यदि रस लेगा तो तुझे इसमें ऐसा प्रानन्द आयगा कि कभी थकावट ही नहीं होगी। आत्मा की चर्चा में थकावट लगना, ऊब पैदा होना प्रात्मा की अरुचि का द्योतक है। अब आप स्वयं सोच लो कि पापको किस रुचि है ? हमें इस बारे में कुछ नहीं कहना है । __ "रुचि अनुयायी वीर्य" के अनुसार जहाँ हमारो रुचि होती है हमारी संपूर्ण शक्तियाँ उसी दिशा में काम करती हैं । यदि हमें भगवान अात्मा की रुचि होगी तो हमारी संपूर्ण शक्तियां भगवान आत्मा के प्रोर ही सक्रिय होंगी और यदि हमारी रुचि विषय-कषाय में हुई ते हमारी संपूर्ण शक्तियाँ विषय-कषाय की ओर ही सक्रिय होंगी। हमसे बहुत लोग कहते हैं कि कहाँ ये प्रात्मा-फात्मा की बातें रे बैठे, कोई अच्छी बात बताओ न ! धर्म की बात बतायो न ! पर भाई उनसे हम क्या कहें, जो आत्मा के साथ फात्मा शब्द जोड़कर प्रात्मा की उपेक्षा करते हैं, अपमान करते हैं ? आत्मा की बात क्या बुरी बात है, अधर्म की बात है ? हमारी दृष्टि में तो भगवान आत्मा के अतिरिक्त कोई वात अच्छी हो ही नहीं सकती। ग्रात्मा के विना तो धर्म की कल्पना भी संभव नहीं है, पर हम उनसे क्या कहें ? _ आप ही सोच लो कि उनकी रुचि कहाँ लगी है ? जिसे प्रात्मा की रुचि होगी, उसे ही आत्मा की बात सुहायेगी। जिसे ग्रात्मा की

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